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________________ (४८) समझ कर महाकवि धनञ्जयके इस विषापहार स्तोत्रकी टीका रची है। इस टीकाके अतिरिक्त वादिराज सरिके एकीभावस्तोत्रकी टीका भी इनकी बनाई हुई अपने पास है। इससे यह सम्भावना होती है कि सम्भवतः इन्होंने 'पंचस्तोत्र' की टीका लिखी होगी। उपर जिस पंचस्तोत्र टीकाकी सम्भावना व्यक्त की गई है, उसकी दो प्रतियाँ (नं. ५३४, ५३५) जयपुरमें पं० लूणकरण जीके शास्त्र-भण्डारमें मौजूद हैं । नागचन्द्रसूरिने और किन ग्रन्थोंकी रचना की, यह अभी ___टीका प्रशस्तिमें रचना समय दिया हुश्रा नहीं है। फिर भी चूँ कि भद्दारक ज्ञानभूषण वि० की १६वीं शताब्दीके विद्वान हैं, उन्होंने अपना 'तत्त्वज्ञानतरंगिणी' नामका ग्रन्थ वि० सं० १५६० में बना कर समाप्त किया है और नागचन्द्रसूरि अपनी टीकामें ज्ञानभूषणका उल्लेख कर ही रहे हैं । अतः प्रस्तुत नागचन्द्रसूरि भी विक्रमकी १६वीं शताब्दीके विद्वान हैं। ७१वीं और १२०वीं प्रशस्तियाँ क्रमशः 'पाण्डवपुराण' और 'शान्तिनाथ पुराण' की है। जिनके कर्ता भ० श्रीभूषण हैं जो काष्ठासंघ नन्दीतटगच्छ और विद्यागणमें प्रसिद्ध होने वाले रामसेन, नेमिसेन, लक्ष्मीसेन, धर्मसेन, विमलसेन, विशालकीर्ति. विश्वसेन श्रादि भट्टारकोंकी परंपरामें होने वाले भट्टारक विद्याभूषणके पट्टधर थे । यह भट्टारक गुजरात के पासपासके गद्दीधर जान पडते हैं । बड़ौदाके बाडी मुहल्लेके दि० जैन मन्दिरमें विराजमान भ. पार्श्वनाथकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा सं० १६०४ में काष्ठासंघके भट्टारक विद्याभूषणके उपदेशसे हुँबडज्ञातीय अनन्तमतीने कराई थी+। से देखो, राजस्थान के जैन शास्त्रभण्डारोंकी सूची भाग २, पृ० ४६ +सं० १६०४ वर्षे वैशाख वदी ११ शुक्र काष्ठासंघे नन्दीतट गच्छे विद्यागणे भट्टारक रामसेनान्वये भ. श्री विशालकीर्ति तत्प? भट्टारक श्री विश्वसेन तत्प? भ० विद्याभूषणेन प्रतिष्ठितं, हूँबडज्ञातीय गृहीत दीक्षाबाई मनन्तमती नित्यं प्रथमति।
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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