SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४६) को 'उभयभाषा कविचक्रवर्ती' सूचित किया है । इससे वे संस्कृत और कनड़ी भाषाके प्रौद विद्वान जान पड़ते हैं । उनके नाटक तो कवि की प्रतिभाके संघोतक हैं ही, किन्तु जैनसाहित्यमें नाटक परम्पराके जन्मदाता भी हैं। मेरे ख़यालमें शायद उस समय तक नाटक रचना नहीं हुई थी। कविवर हस्तिमझने इस कमीको दूर कर जैन समाजका बड़ा उपकार किया है । यह उस समयके कवियोंमें अग्रणी थे और नाटकोंके प्रणयनमें दक्ष थे। आपके ज्येष्ठ भ्राता सत्यवाक्य आपकी सूकियोंकी बडी प्रशंसा किया करते थे। ग्रन्थकर्ताने पाण्ड्य राजाका उल्लेख किया है जिनकी कृपाके वे पात्र रहे हैं । और उनकी राजधानीमें अपने बन्धुओं और विद्वान् प्राप्तजनोंके साथ बसे थे। राजाने अपनी सभामें उनका खूब सन्मान किया था। पांड्यमहीश्वर अपनी भुजाओंके बलसे कर्नाटक प्रदेश पर शासन करते थे । पांड्य राजाओंका राज्य दक्षिण कर्नाटकमें रहा है कार्कल वगैरह भी उसमें शामिल थे। इस राजवंशमें जैनधर्मका काफी प्रभाव रहा है और इस वंशके प्रायः सभी राजा लोग जैनधर्म पर प्रेम और आस्था रखते थे। कविवर हस्तिमल्लका समय विक्रमकी १४वीं शताब्दी है । कर्नाटक कवि चरित्रके कर्ता श्रार. नरसिहाचार्यने हस्तिमल्लका समय ईसाकी तेरहवीं शताब्दीका उत्तराधं १२६० और वि० सं० १३४७ निश्चित किया है। ___ कविवर हस्तिमल्लकी इस समय तक छह रचनात्रोंका पता चलता है, जिनमें चार तो नाटक हैं और दो पुराण ग्रन्थ कनड़ी भाषामें उपलब्ध हुए हैं । विक्रान्तकौरवनाटक, मैथिलीकल्याणनाटक, अंजना पवनंजयनाटक और सुभद्राहरण तथा श्रादिपुराण और श्रीपुराण । इन दोनों पुराण ग्रंथोंसे थे कनड़ी भाषाके भी अच्छे विद्वान जान पड़ते हैं। प्रतिष्ठातिलक नामका एक ग्रन्थ और है जो हस्तिमल्लका बतलाया जाता है । अय्यपार्य ने जिन प्रतिष्ठा प्रन्थोंका उल्लेख किया है उनमें हस्तिमल्लके प्रतिष्ठा ग्रन्थका भी उल्लेख निहित है। पर चूं कि वह ग्रन्थ सामने नहीं है अतः उसके सम्बंध में कुछ नहीं लिखा जा सकता। ६७ वीं प्रशस्ति 'शृंगारमंजरी' की है, जिसके कर्ता आचार्य अजित
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy