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________________ (४४) १३वीं प्रशस्ति 'बृहत्षोडशकारणपूजा' की है, जिसके कर्ता भट्टारक सुमतिसागर हैं जो मूलसंघ ब्रह्मतपा गच्छ और बलशालि गणके विद्वान थे। यह भारक पद्मनन्दी और देवेन्द्रकीर्तिकी पट्ट-परम्परामें हुए हैं। यह प्रन्थ इन्होंने खंडेलान्वयके सुधी प्रह्लादके श्राग्रहसे बनाया था । ग्रंथगत जयमालाके अन्तिम घत्त में अभयचन्द्र और अभयनन्दीका उल्लेख किया गया है। साथ ही अवन्ति देशस्थित उज्जैन नगरीके शान्तिनाथ जिनालयका भी उल्लेख हुया है। यह ग्रन्थ प्रति सं० १८०० की लिखी हुई है अत: सुमतिसागरका समय इससे बादका नहीं हो सकता । ग्रन्थमें रचनाकाल नहीं होनेसे निश्चयतः कुछ नहीं कहा जा सकता कि यह ग्रन्थ कब बना है ? इनकी दूसरी कृति 'जिनगुणवतोद्यापन' है जो २१ पत्रात्मक प्रति है और देहली पञ्चायती मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित है। तीसरी कृति 'नवकार पैंतीस पूजा' है । जिसकी पत्र संख्या १२ है । ये प्रतियां भी इस समय सामने न होनेसे इनके सम्बंधमें भी विचार करना सम्भव नहीं है। अनुमानतः सुमतिसागर १७वीं ८वीं शताब्दीक विद्वान् होगे। ६वीं प्रशस्ति पंचकल्याणकोद्यापनविधि' की है, जिसके कर्ता गोपालवी हैं । गोपालवर्णीके गुरु भ० हेमचन्द्र थे। प्रस्तुत भ० हेमचन्द्र की गुरु-परम्परा क्या है और वे कहां की गहीके भट्टारक थे । यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका। क्योंकि इस नामक भी अनेक विद्वान हो चुके हैं। गोपालवर्णीने उक्त ग्रन्थ ब्रह्म भीमाके श्राग्रहसे बनाया है। ६५वीं प्रशस्ति 'सिद्धचक्र-कथा' की है, जिसके कर्ता भट्टारक शुभचन्द्र हैं, जो भट्टारक मुनि पद्मनन्दीके पट्टधर थे । इनकी यह एक ही कृति देखने में आई है, अभी अन्य कृतियोंके सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका। इस सिद्धचक्रकथाको जिनधर्म-वत्सल एवं सम्यग्दृष्टि किसी जालाक नामके श्रावकने बनवाई थी। इनकी दूसरी कृति 'श्रीशारदास्तवन' है। इस स्तवनके अन्तिम पद्यके पूर्वार्धमें अपना और अपने गुरुका नाम उल्लेखित किया है-"श्रीपद्मनन्दीन्द्र मुनीन्द्रपट्टे शुभोपदेशी
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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