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________________ (४२) अनेक मंदिर एवं मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा भी कराई थी। भ० चंद्रकीति काठा. संघ और नंदीतट गच्छके महारक थे और भ० विद्याभूषणके प्रशिष्य तथा श्रीभूषणके शिष्य एवं पट्टधर थे । थकी अंतिम प्रशस्तिमें उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा भारक रामसेनसे बतलाई है। पार्श्वपुराण १५ सोंमें विभक्त है, जिसकी श्लोक संख्या २७१५ है। और वह देवगिरि नामक मनोहर नगरके पर्श्वनाथ जिनालयमें वि० संवत्१६५४ के वैशास्त्र शुक्ला सप्तमी गुरुवारको समाह किया गया है। दूसरी कृति वृषभदेव पुराण हैं जो २५ सर्गोंमें पूर्ण हुभ्रा है। इस प्रथमें रचना. काल दिया हुश्रा नहीं है। अतः दोनों ग्रंथोंके अवलोकन विना यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें से कौन पीछे और कौन पहले बना है। इनके अतिरिक्त भ० चंद्रकीर्तिने और भी अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है। उनमें कुछ नाम इस प्रकार हैं:-पद्मपुराण, पंचमेरूपूजा, अनंतवतपूजा और नंदी. श्वरविधान अादि। चूंकि ये ग्रंथ सामने नहीं हैं अतः इनके सम्बंधमें कोई यथेष्ट सूचना इस समय नहीं की जा सकती। ६. वो प्रशस्ति 'छन्दोनुशासन' मथकी है, जिसके कर्ता जयकीर्ति हैं । जयकीर्तिक गुरुका क्या नाम था यह ज्ञात नहीं हो सका । जयकीर्तिकी यह एक मात्र कृति जैसलमेरके ज्ञानभण्डार में स्थित है। जो सं० ११६२ की प्राषाढ़ सुदी १०मी शनिवार की लिखी हुई है। और अभी जयदामन् नामक छंदशास्त्र के साथमें प्रकाशित हो चुकी है। जिसका सम्पादन मि. H. D. वेलंकरने किया है। प्रस्तुत जयकीर्तिके शिष्य श्रमलकीर्तिने 'योगसार' की प्रति सं० १११२ की ज्येष्ट सुदी प्रयोदशीको लिखवाई थी। एपिमाफिया इंडिका जिल्द २ में प्रकाशित चित्तौड़गढ़के निम्न शिलावाक्यमें जो संवत् १२०७ में उत्कीर्ण हुआ है लिखा है कि जयकीर्तिके शिप्य दिगम्बर रामकीर्तिने उक्त प्रशस्ति लिखी है। __श्री जयकीर्तिशिष्येण दिगम्बरगणेशिना । प्रशस्तिरीदृशीचक्रे [ मुनि ] श्री रामकीर्तिना ॥-सं० १२०७ सूत्र धा ।" इन सब उल्लेखोंसे जयकोर्तिका समय विक्रम की १२वी शताब्दीका अन्तिम भाग है।
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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