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________________ ( ३३ ) नामक दुर्गमें बादशाह शेरशाहके द्वारा सम्मानित हुए थे। प्रस्तुत जिनदास इन्हींके पुत्र थे, इनकी माताका नाम 'रिग्वश्री' और धर्मपत्नीका नाम जिनदासी था, जो रूप लावण्यादि गुणोंसे अलंकृत थी। पण्डित जिनदास रणस्तम्भदुर्गके समीपस्थ नवलक्षपुरके निवासी थे । जिनदासके मातापितादिके नामोंसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि उस समय कतिपय प्रान्तोंमें जो नाम पतिका होता था वही नाम प्रायः पत्नीका भी हुमा करता था। इनका एक पुत्र भी था जिसका नाम नारायणदास था। पण्डित जिनदासने शेरपुरके शान्तिनाथ चैत्यालयमें ५१ पद्यों वाली 'होलीरेणुकाचरित्र' की प्रति अवलोकन कर संवत् १६०८ के ज्येष्ठ शुक्ला दशमी शुक्रवारके दिन इस ग्रन्थको ८४३ श्लोकोंमें समाप्त किया है । प्रन्थफर्ताने ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें अपने पूर्वजोंका भी कुछ परिचय दिया है जिसे उक प्रशस्ति परसे सहज ही जाना जा सकता है । पण्डित जिनदासजीने यह ग्रन्थ भट्टारक धर्मचन्द्रजीके शिष्य भ. ललितकीर्तिके नामांकित किया है, यह सम्भवतः उन्हींके शिष्य जान __४६वों प्रशस्ति 'मुनिसुत्रतपुराण' की है, जिसके कर्ता ब्रह्म कृष्णदास हैं, जो लोहपत्तन नगरके निवासी थे। इनके पिताका नाम हर्ष और माताका नाम 'वीरिका' देवी था। इनके ज्येष्ठ भ्राताका नाम मंगलदास था । यह दोनों ब्रह्मचारी थे । इन्होंने प्रशस्तिमें अनेक भट्टारकोंका स्मरण किया है जो भष्टारक रामसेनकी परम्परामें हुए हैं। यह काष्ठासंघके भट्टारक भुवनकीर्तिके पट्टधर भ० रत्नकीर्तिके शिष्य थे। भ० रत्नकीर्ति न्याय, नाटक और पुराणादिमें विज्ञ थे। ब्रह्म कृष्णदासने श्रीकल्पवल्लीनगरमें इस प्रन्थको वि० सं० १९८१ के कार्तिक शुक्ला त्रयोदशीके दिन अपराग्रह समय समाप्त किया था। प्रन्थ पूरणमल्लक नामसे अंकित है। इसमें जैनियोंके बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतके चरित्रका चित्रण किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ २३ संधियों और ३०२५ श्लोकोंमें समाप्त हुआ है।
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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