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________________ भैरवपद्मावती कल्प- प्रशस्ति ६६. ज्वालिनीकन्प (मल्लिषेण सूरि ) आदिभाग : चन्द्रप्रभं जिन नत्वा शरच्चन्द्रसमप्रभम् । वक्ष्येहं ज्वालिनीकल्पं संकल्पितसमप्रभम् ॥१॥ अन्तभाग: श्रीमतोऽजित सेनस्य सूरेः कर्मातिंधूरिणः । शिष्यः कनकसेनोभूद्वाणि (१) कमुनिजनस्तुतः ॥२॥ तदीयशिष्यो जिनसेन सूरिः तस्याग्रशिष्योऽजनि मल्लिषेणः । वाग्देवतालक्षितचारुवक्त्रस्तेनारचि [श्री] शिखि देविकल्पः ॥ ३॥ कुमतिमतविभेदी जैनतत्त्वार्थवेदी हृतदुरितसमूहः क्षीण संसारमोहः । भवज्जलधितरण्डो वाग्ब[रो] वाक्करण्डो विबुध कुमुदचन्द्रो मलिषेणो गणीन्द्रः४ इति ज्वालिनीकल्पं समाप्तम् । १००. भैरवपद्मावतीकल्प सटीक ( मलिषेणसूरि ) आदिभाग : टी० मं० - श्रीमच्चातुणिकायामरखचरवधूनृत्य संगीतकीति I've व्याप्ताशामंडलं मंडितसुरपटहाद्यष्टसत्प्रातिहार्ये । नत्वा श्रीपार्श्वनाथं जितकमठकृतोद्द डघोरोपसर्ग पद्मावत्या हि कल्पप्रवर विवरणं वक्ष्यते मल्लिषेणैः ॥१॥ * साराभाई नवाब द्वारा मुद्रित प्रतिमे 'बन्धुषेणै:' पाठ दिया है और उसके द्वारा टीकाको बन्धुषेणकृत सूचित किया है, परन्तु ऐ० प० सरस्वती भवन बम्बईकी प्रतिमे और ला• मनोहरलालजी जौहरी देहलीकी दो प्रतियों में भी 'मलिषेणै: ' पाठ पाया जाता है और उससे टीकाका स्वोपज्ञ होना जाना जाता है, ग्रन्थकी सन्धियोंमें भी मल्लिषेणका ही नाम है । बन्धुषेणके टीकाकार होनेका उनसे कोई समर्थन नहीं होता । और न अन्तमें ही बन्धुturer टीकाकार - रूपसे कोई नामोल्लेख तथा परिचय उपलब्ध होता है।
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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