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________________ ( ५ ) गया है, वह देहली के पंचायतीमंदिर और धारा जैनसिद्धांत भवनकी प्रतियोंमें नहीं है, जिन परसे उक्त प्रशस्तिको नोट किया गया था । बादको ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वतिभवन व्यावरकी प्रति परसे प्रशस्तिका उक्त अन्तिम पद्य निम्न रूपमें उपलब्ध हुआ है Į वाणेन्द्रियव्योमसोम - मिते संवत्सरे शुभे । १०५५। प्रन्थोऽयं सिद्धतां यात सबलीकरहाटके ॥ इस पद्यसे ग्रन्थका रचनाकाल सं० १०५५ और रचना स्थान सबलीकरहाटक स्पष्ट जाना जाता है और इसलिये ग्रन्थकार जयसेनका समय विक्रमकी ११वीं शताब्दीका मध्यभाग सुनिश्चित है । सबलीकरहाटक नामका नगर अथवा ग्राम कहाँ पर स्थित है इसके अनुसन्धानका अभी तक अवसर नहीं मिल सका । तीसरी प्रशस्ति 'यशोधर चरित्र' की है जिसके कर्ता पद्मनाभ कायस्थ हैं, पद्मनाभ कायस्थने भट्टारक गुणकीर्तिके उपदेशसे पूर्व सूत्रानुसार यशोधरचरित्र अथवा दयासुन्दरविधानकी रचना राजा वीरमेन्द्र या वीरमदेव के राज्यकालमें महामात्य (मंत्री) साधू (साहू) कुशराज जैसवालके अनुरोधसे की है। पद्मनाभा वंश कायस्थ था और वे संस्कृत भाषा अच्छे विद्वान थे । और जैनधर्म पर विशेष अनुराग रखते थे । 'संतोष' नामके जैसवालने उनके इस ग्रन्थकी प्रशंसा की तथा विजय सिंहके पुत्र पृथ्वीराजने अनुमोदना की थी । कुशराज जैसवालकुलवे भूषण थे, इनके पिताका नाम जैनपाल और माताका नाम 'लोणा' देवी था, पितामहका नाम भुल्लण और पितामहीका नाम उदिता देवी था। आपके पांच भाई और भी थे। जिनमें चार डे और एक छोटा था । हंसराज, मेराज, रैराज, भवराज ये बड़े भाई श्र र हेमराज छोटा भाई था । कुशराज बडा ही धर्मात्मा तथा राजनीति में कुशल था । इसने ग्वालियरमें चन्द्रप्रभ जिनका एक विशाल जिनमंदिर Water था और उसको प्रतिष्ठादिकार्यको बड़े भारी समारोहके साथ संपन किया था । कुशराजकी तीन स्त्रियां थीं, रल्लो, लक्षणश्री, और कौशीरा ।
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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