SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अचौर्य ]. [८५ तुम्हें अपनी सन्तानका पालन करना चाहिये, इस प्रकार मैं कर्तव्य में बँधा हूँ । माता पिता तथा सन्तान हमारे साहुकार या साहुकार के प्रतिनिधि हैं । मैं जो कुछ देता हूँ वह अपना ऋण चुकाता है। ऋण चुकानेको मैं दान स-झू इसका मतलब यह हुआ कि मैं ऋण को अस्वीकार करता हूँ । इस प्रकार परधनको जबर्दस्ती अपनाता हूँ, यह चोरपन ही नहीं है किन्तु जबर्दस्तीका भाव आजानेसे डाँकूपन भी है। और स्त्री तो स्पष्ट रूपमें ही साझेदार है। हमारे अमुक परिश्रमका उपयोग वह करती है और उसके अमुक परिश्रमका उपयोग हम करते हैं, इस प्रकार वह हिस्सेदार है । अब अगर मैं उपार्जित सम्पत्तिपर अपना पूर्णाधिकार समझता हूँ तो मैं अपने हिस्सेदार का तथा साहुकार का हिस्सा हेड़ा जाता हूँ इस प्रकार मैं चौर हूँ। घरमें अगर कुटुम्ब विभक्त न हुआ हो तो पुत्रवधू भ्रातृवधू, या भौजाई विधवा हो तो उसका सम्पतिमें उचित हिस्सा न मानना तथा उसका हिस्सा उसकी इच्छा होने पर भी न देना भी चोरी है। ४-अविभक्त कुटुम्ब होनेपर भी जो सम्पत्ति किसी व्यक्तिके लिये नियत करदी गई हो, उसे उसकी इच्छाके बिना ग्रहण करना भी चोरी है। जैसे-अविभक्त कुटुम्बके भीतर स्त्रीधन अर्थात विवाह के अवसर पर दोनों पक्ष (वरपक्ष और कन्यापक्ष ) से मिली हुई सम्पत्ति पर अधिकार करलेना चोरी ही है। इसका चर्यिपन स्पष्ट ५-कन्याविक्रय और वरविक्रय भी चोरी है। वरपक्षसे अमुक धन लेकर कन्याका विवाह करना कन्याविक्रय है, और कन्यापक्षसे अमुक धन लेकर वरका विवाह करना वरविक्रय है। ये दोनों
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy