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________________ ८२ } | जैन धर्म मीमांसा पर साफ निकल जावे आदि भी अमत्य की कक्षा में हैं, क्योंकि इन सब क्रियाओं में वञ्चनाके परिणाम होते है तथा इसका फल भी वञ्चना हैं । सत्यासत्य के निर्णय के लिये ये थोड़ीसी सूचनाएँ हैं । सच्चा संयम होनेपर इनका पालन अपने आप होने लगता है और अमंयमी जीव इन नियमों के पंजेस बचकर भी सम्भवत झूठ बोल सकता है हाँ. निःपक्ष होकर इन सूचनाओं की कसौटी पर कसकर अपने व्यवहारकी जाँच की जाय तो अवश्य ही हम सत्यके बहुत सर्मा पहुँचेंगे। यद्यपि हम कितनी भी कोशिश करें, हमारे अज्ञानसे हम दूसरों को कष्ट देते रहते हैं । इसलिये अहिंमाकी दृष्टि से भी पूर्ण सत्यका पालन नहीं हो सकता । इसलिये हम अपना प्रयत्न ही कर सकते हैं । जो इस प्रयत्न में पूर्ण तत्पर है, वहां पूर्ण सत्यवादी है 1 अचौर्य दूसंरकी वस्तुको उसकी अनुमतिके बिना अपनी बनालेना चोरी है और इसका त्याग अचौर्य है। चोरी भी दुख:प्रद होने से हिंसा है तथा सत्यका नाशक होनेसे, या यों कहना चाहिये कि सत्य का घात किये बिना चोरी हो नहीं सकती इसलिये, चोरी भी असत्य है । व्यवहार में किसी को मारने में ही हिंसा शब्दका व्यवहार होता है इसलिये स्पष्टता के लिये चोरी को अलग पाप और अचौर्य को एक स्वतन्त्र व्रत रूप में स्वीकार करना पड़ा है ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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