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________________ ७४ [ जैन-धर्म-मीमांसा में छुपकर असत्य अपना काम करता है। असत्य वचनों पर अविश्वास करने बालों की अपेक्षा सन्देह में पड़ने वालों और विश्वास करनेवालों की संख्या कई गुणी है। इसलिये निरर्थक तो नहीं कहा जा सकता; हाँ.दुःखप्रद अवश्य है । परन्तु आपवादिक मिथ्या भाषण, जिसका विधान ऊपर, किया गया है, जितना दुःखप्रद है उससे भी अधिक सुखप्रद है । इसलिये उसका विधान किया गया है। धर्मफल का विचार करते समय अधिकतम--सुख का ही विचार किया गया है। प्रश्न-जब अपधादिक मिथ्याभषाण कर्तव्य ही है लब प्रायश्चित की क्या ज़रूरत ! उत्तर-इसके लिये अन्य किसी प्रायश्चित्त की जरूरत नहीं है, सिर्फ आलोचना की जरूरत है । यह भी एक प्रायश्चित्त है । अर्थात् मैं अमुक कारण से अतथ्य बोला, इस प्रकार प्रकट करने की ज़रूरत है। इसका फल यह होगा कि लोग मिथ्यावादी न समझेंगे । मैं दूसरे के हित के लिये झूठ बोला या अपने लिये झूठ बोला, लोग इस पर विचार न करके अपने को मिथ्यावादी समझने लगते हैं। इससे ऐसी जगह भी वे अपना विश्वास न करेंगे, जहाँ आपवादिक मिथ्याका प्रकरण नहीं है। इस अविश्वास को दूर करने के लिये प्रायश्चित्त, आलोचना, असत्यताको स्वीकारता, की आवश्यकता है । इससे आपवादिक मिथ्याभाषण भी + सुखाधिक दुःख जनकत्वं धर्मसामान्यलक्षणम् ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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