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________________ अहिंसा ] ५१ कराते हैं और युद्ध के अंत में वे छोड़ दिये जाते हैं, जिससे वे श्रमणदीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करते हैं । इसी प्रकार जैन महाभारत में भी दुर्योधन आदि मारे नहीं जाते, किन्तु कैद होते हैं और अंत में श्रमण बनते हैं। यही हाल कीचक का भी होता है। वह भी मारा नहीं जाता । इस चरित्रचित्रण का सार इतना ही है कि आवश्यकतावश मनुष्यवध करना पड़े तो किया जाय, परन्तु जहां तक हो वह कम किया जाय । शत्रु अगर गुड़ से मरता हो तो विष से न मारा जाय । वह सुधर सकता हो तो उसे सुधरने का मौका दिया जाय । मैं नहीं समझता कि इस नीति को कोई अनुचित कहेगा । किसी समय की बात दूसरी है । परन्तु धर्म का समय राजनैतिक परिस्थितियों के समय से कुछ बड़ा होता है । धर्म इन परिस्थितियों के अनुसार कार्य करने का निषेध नहीं करता, फिर भी उसकी दृष्टि मनुष्यता तथा सर्वभतहित पर रहती है। जीवन में उत्सर्ग और अपवाद दोनों की आवश्यकता होती है। उत्सर्ग के स्थानपर अपवाद का प्रयोग जिस प्रकार अनुचित है, उसी प्रकार अपवाद के स्थानपर उत्सर्ग का प्रयोग करना भी अनुचित है । मनुष्य इनके प्रयोगों में भूलता है परन्तु उसके फलको भूल का फल नहीं मानता किन्तु नियम नीति या धर्म का दुष्फल मानता है यह ठीक नहीं है। ___ मैं पहिले कह चुका हूं कि प्रत्येक गुण का दुरुपयोग किया जा सकता है, किन्तु इसीलिये गुण निंदनीय नहीं होते । इसी प्रकार अहिंसा का भी दुरुपयोग हो सकता है और अनेक जगह हुआ भी है, परन्तु इसीसे वह निंदनीय नहीं हो सकती । जैनधर्म की
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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