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________________ ४० ] [जैनधर्म-मीमांसा आते उनकी रक्षा न करना और रक्षा न करने को धर्म समझना ठीक नहीं है । -6 दो प्राणियों में से एक का मरना अनिवार्य हो और 1 एक के मारने से दूसरा बच सकता हो तो परोपकारीको बचाना उचित है । जैसे--माता के उदर में बच्चा इस तरह फँस गया है कि किसी भी तरह नहीं निकलता । सिर्फ दो ही उपाय हैं कि या तो बच्चे को काटकर माता को बचाया जाय या माता का पेट चीरकर बच्चा निकाल लिया जाय तो ऐसी हालत में माता का बचाना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि बच्चे का उपकार माता के द्वारा हुआ है, न कि बच्चे के द्वारा माता का उपकार - 1 - ऐसी हालत में बच्चे का वध करना भी कर्तव्य है । यदि इस प्रकार निर्णय न हो सके अर्थात् उनमें उपकार्य उपकारक भाव न हो तो जो अधिक संयमी (संयमवेषी नहीं) तथा समाज हितकारी हो उसका रक्षण करना चाहिये । मतलब यह कि अहिंसा -- दयालुता -- के नामपर दोनों को मरने देना, प्राणिरक्षा के लिये की जानेवाली अनिवार्य हिंसा को भी पाप समझना भूल हैं । ८-- अत्याचार रोकने के लिये अत्याचारीका अनिवार्य वध भी हिंसा नहीं है । जैसे रामने सीता ऊपर होनेवाले अन्यायको रोकने के लिये रावण का वध किया । अथवा कल्पना करो कि कोई मुनिसंघ जंगल में बैठा हो और कोई जानवर उनपर आक्रमण करे और उसके रोकने के लिये अगर उसका वध करना पड़े तो भी वह क्षन्तव्य है, भले ही यह काम मुनि ही क्यों न करे । जब सामान्यरूप में उसका वध करना उचित है, तब वह श्रावक
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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