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________________ अहिंसा ] [ ३१ ज्ञानबल है, जिससे सुखका संवेदन अधिक किया जा सके । इसलिये अधिक चैतन्यवाले की रक्षा के लिये अगर हीन चैतन्यवाले का वध अनिवार्य हो तो करना पड़ता है । परन्तु यदि दो प्राणी ऐसे हों जिनमें समान चैतन्य हो तब उनमें से किसी को भी यह अधि. कार नहीं रह जाता कि वह दूसरे की हिंसा करे क्योंकि इससे कल्याण की वृद्धि नहीं है--लाभ और हानि बराबर रहता है। प्रश्न-यदि दोनों बराबर हैं तो अपने बचाने के लिये दूसरे का वध करना उचित कहलाया, अथवा अनुचित तो न कहलाया । उत्तर-इस दृष्टि से बराबर कहलाने पर भी अन्य दृष्टि से कल्याण का नाश हो जाता है। कल्पना करो कि दो मित्र ऐसी जगह पहुँच गये जहां न खाने के लिये कुछ है, न पीने के लिये कुछ है। ऐसी हालत में एक मित्र अगर दूसरे मित्र को मारकर खा जाय तो सम्भवतः एक की जान बच सकती है परन्तु अगर हम इस कार्य को कर्तव्य मान लें तो इसका फल यह होगा कि(क) दोनों ही एक दसेरे को मारकर स्वयं बचने कोशिश करेंगे, इससे सम्भवतः दोनों ही लड़कर मर जायँगे अथवा मरनेवाला मारनेवाले को मृतकप्राय जरूर कर जायगा । (ख) संकट का आभास होते ही दोनों मित्र मन ही मन एक दूसरे के शत्रु बन जायगे। और जल्दी से जल्दी एक दूसरे को मार डालने के षडयंत्र में लग जायेंगे। इससे जो कष्ट और अशान्ति होगी वह उपेक्षणीय नहीं कही जा सकती। (ग) इस उतावली में कभी कभी अनावश्यक हत्यायें भी हो जाया करेगी, क्योंकि सम्भव है कि वह विपत्ति इतनी बड़ी न हो जितनी कि उनने उतावली से समझ ली । (घ) इससे जो मानसिक
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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