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________________ उपसंहार ] ३६७ नाई होगी तथा सुधार में सरलता होगी। इसके अतिरिक्त वर्तमान में उनको सेवा करने के जो अधिक मौके मिलेंगे, वे अलग | "युग नियम कैसे भी बनाये जॉय, परन्तु सब जगह विवेक की आवश्यकता तो रहती हो है । जब तक विवेक रहेगा तभी तक नियम काम करेंगे। बाद में उनमें संशोधन करना होगा । इसलिये साधुसंस्था के परिवर्तित रूप से घबराने की ज़रूरत नहीं है । चारित्र का मर्म समझने के लिये तथा वर्तमान समय में साधुसंस्था में कर्मण्यता तथा सेवा का पाठ भरने के लिये यह उचित परिवर्तन किया गया है । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र ये जैनधर्म के मुख्य विषय हैं । छः अध्यायों की इस विस्तृत मीमांसा में इन्हीं की मीमांसा की गई है । [ छड्डा अध्याय समाप्त ] ( जैनधर्म-मीमांसा समास ]
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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