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________________ गुणस्थान] [ ३६१ इस प्रकार के सम्यग्दृष्टि तीन तरह के होते हैं-वेदक, 'औरशमिक और क्षायिक। दक सम्यक्त्व उसे कहते हैं कि जिसमें सत्य का दर्शन तो हो जाता है, उस पर दृढ़ विश्वास भी हो जाता है, परन्तु नाम का मोह रह जाता है । जैन-शास्त्रों में इसका सुन्दर स्पष्टीकरण किया गया है । यधपि उसमें कुछ संशोधन की ज़रूरत है परन्तु वह दिशानिर्देश अच्छी तरह से करता है । वे कहते हैं कि यदि किसी ने मूर्ति बनाई हो और वह यह कहे कि यह मेर।* देव है तो वह उसका इस प्रकार मूर्तियों में 'मेरे-तेरे' का भान आ जाना सम्यक्त्व का एक दूषण है । यद्यपि इससे सम्यक्त्व नष्ट तो नहीं झेता, फिर भी कुछ मलिन ज़रूर हो जाता है। इसी प्रकार तीर्थकरों में समानता होने पर भी किसी विशेष का थोड़ा पक्षपात होना भी एक दोष है, इससे सम्यक्त्व मलिन होता है, यद्यपि वह नष्ट नहीं होता; क्योंकि दूसरे तीर्थंकरों की उसमें अवहेलना निंदा आदि नहीं होती है। इन उदाहरणों से इतना तो स्पष्ट होता है कि नामादि के पक्षपात से समभाव में थोड़ा-सा मैल लगाने से सम्यक्त्व कुछ • स्वकारितऽईचत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते । अन्यस्यायमिति म्राम्यन् मोहाड्राद्धोऽपि चेष्टते । -गोम्मटसार जीवकाण्ड २५ टीका। 2 समप्यनन्तशक्तित्व सर्वेषामहंतामयं । देवोऽस्मै प्रभुरषोऽस्माइत्यास्था सुदशामपि । -गो. जी० का २५ ॥
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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