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________________ ३३२] (जैनधर्म -मीमांसा सुभद्रा, जिनदचा, अईहास सेठ की पत्नी आदि; शान्तिपुराण में स्वयंप्रभा आदि । इनमें से कुछ ने अकेले पूजा की है, कुछ ने पति के साथ। कुछ के विषय में तो उनके द्वारा मर्तिस्थापन तथा अभिषेक होने का स्पष्ट उल्लेख है। ये सब उदारतापूर्ण बातें शास्त्रों में मिलती हैं । अगर कदाचित् न मिलती होती तो भी न्याय की रक्षा के लिये इनका रखना आवश्यक था । समता का विघातक अनुचित प्रतिबन्ध कदापि न होना चाहिये । इसी प्रकार शूद्रों के बारे में भी समझना चाहिये । जब उन्हें मोक्ष जाने, संयम पालने, व्रत लेने का अधिकार है, तब पूजा का अधिकार कौन सा बड़ा अधिकार है ? ३-देव-पूजा के लिये मूर्ति को अबलम्बन मानकर उसका उपयोग किया जाय यह अच्छा है, परन्तु यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि मूर्ति आदि के अवलम्बन के बिना भी पूजा हो सकती है। जहाँ तक सम्भव हो सामाजिकता को बढ़ाने के लिये, वात्सल्य की स्थिरता के लिये, सामूहिक प्रार्थना करना चाहिये | अगर यह सम्भव न हो तो प्रार्थना के लिये सार्वजनिक स्थान, मन्दिर, स्थानक, आदि में जाना चाहिये । अगर इतना भी न हो तो कहीं भी प्रार्थना करना चाहिये । इस प्रकार की प्रार्थनाएँ वास्तव में देव-पूना श्रावकों के इन छः कृत्यों में से गुरुपारित की तो जसरत ही नहीं है अथवा उसे दान में शामिल कर सकते हैं । संयम कोई खास दैनिक कृत्य नहीं है, वह तो मूलगुणादिक के रूप में सता
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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