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________________ ३२.] [जैनधर्म-मीमांसा धर्म से द्वेष न करना, उसमें जो जो भलाइयाँ हों-उन्को सादर , ग्रहण करना, विधर्मी होने से ही किसी की निंदा न करना, आदि सर्वधर्म-समभाव या स्याद्वाद है । (२) मनुष्यमात्र को एक जाति समझना, विजातीय होने से ही किसी से द्वेष न करना, या इसी कारण से खानपान आदि में आनाकानी न करना सर्वजाति समभाव है। (३) रीति-रिवाजों में जो अच्छा हो उसे स्वीकार करना और जो बुरा हो असत्य हो-अपना या समान का नुकसान करने. घाला हो या अन्य किसी कारण से अनुपयुक्त हो-उसका त्याग करना, रूढ़ियों का अन्धभक्त न होना, सुधारकता या विवेक है। (१) सत्य आदि धर्मों की तथा उनको पाकर जो व्यक्ति महान बन गये हैं उनकी, प्रत्यक्ष या परोक्ष में प्रार्थना स्तुति प्रशंसा आदि करना, उन गुणों को जीवन में उतारने के लिये विनीत मन से विचार करना और उन विचारों को किसी तरह प्रकट करना प्रार्थना है। (५) 'शील' शब्द का अर्थ पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं है, किन्तु सापुरुष का आपस में ईमानदार रहना है। पुरुषों के लिये यह ख-सी सन्तोष या पर-स्त्री-निषेत्र के रूप में है और त्रियों के लिये ख-पुरुष सन्तोष या पर-पुरुष-निषेध के रूप में है । जो पुरुष विवाहित हैं उन्हें ख-खी-सन्तोषी होना चाहिये । जो अविवाहित (कुमार या विधुर) में उन्हें पर-स्त्री-निषेधी होना चाहिये, अर्थात् जिन स्त्रियों का पति जीवित है - उनके साथ काम-सम्बन्ध स्थापित न करना चाहिये । जिस प्रकार अविवाहित पुरुषों के लिये कुछ छूट रक्खी
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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