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________________ गृहस्थ-धर्म ] [ ३२१ • ज़रूरत है: १- प्रतिक्रमण ( सामायिक आदि ), २- स्वाध्याय, ३अतिथिसेवा, ४--दान ( अपनी आमदनी में से अमुक भाग समाजोपयोगी कार्यों में खर्च करना ), ५ भोगोपभोग परिसंख्यान, अनर्थ-दंड- विरति, ७ प्रोषध ( सप्ताह में एक दिन एकाशन करना ) अतिथि सेवा और दान ये दोनों वैयावृत्य की व्यापक व्याख्या में आ जाते हैं, परन्तु दोनों की उपयोगिता पृथक् पृथक् है और दोनों पर जोर देना है, इसलिये अलग अलग उल्लेख किया है । सबकी व्याख्या हो चुकी है सात शीों के विषय में इतनी बात और ध्यान में रखना चाहिये कि ये पाँच अणुव्रतों के रक्षण के लिये तो हैं ही, साथ ही जिनने अणुव्रत नहीं लिये हैं वे अणुव्रत प्राप्त करने के लिये तथा अभ्यास के लिये इनका पालन करें । गृहस्थों के मूलगुण । 1 महात्ला महावीर ने जब - जैन-धर्म की पुनर्घटना की और एक नयी संस्था को जन्म दिया तब उनने आचार के जो नियम बनाये थे वे साधुओं को लक्ष्य में लेकर थे; क्योंकि साधुसंस्था ही प्रारम्भ में व्यवस्थित संस्था थी। पीछे गृहस्थों के लिये भी कुछ नियम बने । परन्तु ज्यों ज्यों समय निकलता गया, त्यों त्यों गृहस्थों के लिये अनेक तरह के विधि-विधानों की आवश्यकता होती गई। जिस प्रकार मुनियों के मूल-गुण थे, उसी प्रकार चारित्र की दृष्टि से श्रावकों के मूल-गुण की भी ज़रूरत हुई । परन्तु मुनियों के समान
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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