SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ ] [ जैनधर्म-मीमांसा के लिये जो कार्य किया जाय, वह अहिंसा है; उसके विरुद्ध हिंसा है । इसलिये प्राणिवध करते हुए भी प्राणी अहिंसक है और स्वार्थवश, कायरतावश अत्याचारी की रक्षा करना भी हिंसा है । हिंसा-अहिंसा और पाप-पुण्य की परीक्षा हमें इसी कसौटी पर करना उचित है । इतने पर भी हिंसा, अहिंसा को जटिलता बनी ही रहती है । जबतक जीवन है तबतक उससे हिंसा होगी ही, इसलिये कहाँ तक की हिंसा को क्षन्तव्य कहा जाय और वह कौनसी मर्यादा बाँधी जाय कि जिसके बाहर जाने से हम हिंसक कहलाने लगें ? यह एक ऐसा प्रश्न है कि दुनिया के सम्प्रदायों को चक्कर डाल दिया है । एक सम्प्रदाय शिकार और युद्ध [ दिग्विजय ] को भी धर्म कहता है और दूसरा, श्वास लेने से भी जीव हिंसा होती इसलिये उससे बचने के लिये मुँह पर कपड़े की पड्डी बँधवाता है ! मज़ा यह कि ये दोनों ही अहिंसाको परमधर्म मानते हैं । फिर भी ये दोनों हिंसाको रोक नहीं सकते, क्योंकि कपड़े की पट्टी बाँधने पर भी हिंसा बिलकुल दूर नहीं हो जाती । इस प्रकार यदि अहिंसा का पालन असंभव कहकर छोड़ दिया जाय तो धर्म ही उठ जायगा, फिर उसका कोई पालन क्यों करेगा ? इसलिये स्पष्ट या अस्पष्ट शब्दों में सभी धर्मोंने यह अपवाद बनाया कि जीवन निर्वाह के लिये जो क्रियाएँ अनिवार्य हैं उनके द्वारा प्राणिहिंसा हो तो उसे हिंसा न मानी जाय । इसलिये स्वासोच्छ्वास आदि में होनेवाली हिंसा, हिंसा [ अधर्म ] नहीं
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy