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________________ ३१.] [जैनधर्म-मीमांसा हिंसादान, अपध्यान, प्रमादचर्या और दुःश्रुति ।। ___ पापोपदेश-जो काम पाप-रूप हैं-उनका उपदेश देना पापोपदेश है। हम में अनेक आदतें ऐसी रहती है-जो बुरी होती हैं और जिन्हें हम भी बुरी समझते हैं, फिर भी उनका जानबूझकर या लापर्वाही से प्रचार करते हैं । एक बीड़ी पीनेवाला दुसरे को बीड़ी का शौक लगायगा, यद्यपि वह जानता है कि यह हानिकर है-यह पापोपदेश है । जो बात बुरी है उसको अगर हम स्वार्थवश या कमजोरी से त्याग नहीं सकते तो कम से कम इतना ज़रूर करना चाहिये कि हमारे द्वारा उनका प्रचार न हो। कौन-सा कार्य पाप है और कौन-सा पाप नहीं है, इस विषय का निर्णय करने के लिये पहिले जो पाँचों पापों की और व्रतों की आलोचना की गई है उस पर ध्यान देना चाहिये ।। पापोपदेश से अपना कोई लाभ नहीं है, किन्तु दूसरों का अधःपतन है, इसलिये इसका त्याग करना चाहिये । शंका- अगर किसी पापोपदेश से अपना लाभ हो, स्वार्थ सिद्ध होता हो तो क्या कह पापोपदेश नहीं है ! क्या स्वार्थियों को पापोपदेश की छूट है ! उत्तर-पापोपदेश तो वह भी है, परन्तु वह पापपदेश अनर्थदण्ड नहीं है । यह सम्भव है कि अनर्थदण्ड से भी बढ़कर उसका पाप हो, परन्तु यहाँ तो इतना ही विचार करना है कि एक तरह का पाप अगर सार्थक और निरर्थक किया जाय तो सार्थक की अपेक्षा निरर्थक अधिक बुरा है। अनेक जैन लेखकों ने पापोपदेश के नाम पर कृषि आदि के
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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