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________________ गृहस्थ-धर्म ) [ ३०५ जाती । परन्तु इससे इस बात का फिर एक बार समर्थन होता है कि जैनाचार्य भी आचार-शास्त्र की परम्परा भूल गये थे और वे समयानुसार स्वेच्छा से नये विधान बनाते थे। वे पुरानी परम्परा मूले या न भूलें, परन्तु समयानुसार उचित विधान बनाने तथा उनमें परिवर्तन करने का प्रयत्न उचित है। इन सातों व्रतों को शील भी कहते हैं । व्रतों के रक्षण करने के लिये जो उप व्रत बनाये जाते है-उन्हें शीला कहते हैं । इसलिये इनकी शीलसंज्ञा भी ठीक है। ___ अब यहाँ मैं उन वनों की आलोचना कर देना चाहता हूँ, जिससे मालूम हो जाय कि इस समय कौन-सा व्रत उपयोगी है ! और कानमा नहीं ? आजकल इन शीलों या शिक्षात्रतों की संख्या कितनी रखना चाहिये ! दिग्विरति- अमुक दिशा में इतनी दूर जाऊँगा, इससे अधिक न जाऊँगा-इस प्रकार जीवन भर के लिये मर्यादा बाँधन। दिग्विरति है । मनुष्य मर्यादा के बाहर पं.च पापों से बचा रहता है, इस दृष्टि से इस व्रत की उपयोगिता बताई जाती है । इस प्रकार अहिंसादि अणुव्रतों की वृद्धि का कारण होने से यह गुण वत कहलाता है । यहां तक कि मर्यादा के बाहर पाँच पापों से पूर्ण निवृत्ति परिधय इव नगराणि बतानि फिल पालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्मान्छीलान्यपि पालनीयानि । पुरुषार्थसिद्धयपाय १३ ॥
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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