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________________ २९२ ] [जैनधर्म-मीमांसा यथाशक्ति विजय करना इसी मूल-गुण में शामिल है । स्वास्थ्य वगैरह को सम्हालने की जो बातें कष्ट-सहिष्णुता के वर्णन में कही गई हैं, उनका यहाँ भी ध्यान रखना चाहिये । हाँ, योग्य कर्त्तव्य के लिये स्वास्थ्य का क्या, जीवन का भी बलिदान करना पड़ता है । 1 यद्यपि यहाँ परिवह-विजय पर कुछ लिखने की जरूरत नहीं थी, परन्तु कुछ परिपहों पर जुदे जुदे दृष्टि-बिन्दुओं से विचार करना है, इसीलिये यहाँ कुछ लिखा जाता है । परियहें बाईस हैं । उनका अर्थ उनके नाम से ही स्पष्ट हो जाता है । यह भी आवश्यक नहीं है कि वे बाईस ही मानी जायँ । आवश्यकता होने पर उनमें न्यूनाधिकता भी हो सकती है। उनके नाम ये हैं: क्षुधा (भूख), पिपासा (प्यास), शीत, उष्ण, दंशमशक (डॉस, मच्छर, बिच्छू, सर्प आदि), नग्नता, स्त्री, चर्या ( चलने का कष्ट), निषद्या ( एक जगह आसन लगाने का कष्ट ), शय्या ( मोने का कष्ट, कटोर ज़मीन में सोना पड़े आदि), आकोश ( गालियाँ वगैरह सहना पड़े ), वध ( मारपीट सहना पड़े ), याचना, अलाभ ( भिक्षा वगैरह न मिले ), रोग, तृणस्पर्श (कंटक वगेरह ), सत्कारपुरस्कार (मानापमान ), प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन इनमें से कुछ परिषहों पर विशेष सूचना करने की ज़रूरत है । नग्नता इस विषय में मूल-गुणों की आलोचना करते समय लिख दिया गया है । यहाँ सिर्फ इतना सम्झना चाहिये कि परिषहों में नग्नता के उल्लेख से इतना तो मान्न होता है कि जैन सम्प्रदाय में नग्नता प्राचीन है, अर्थात् महात्मा महावीर के ज़माने से
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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