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________________ २०] [ जैनधर्म-मीमांसा इस प्रकार अहिंसा बहुरूपिणी है, इसलिये उसे प्राप्त करना, उसकी परीक्षा करना कठिन है । किसी के द्वारा केवल प्राणिवधको देखकर यह कह देना कि वह हिंसक है, ठीक नहीं है । संसार में सब जगह इतने प्राणी भरे हुए हैं कि उनकी हिंसा किये बिना हम एक क्षणभर भी जीवित नहीं रह सकते । तब पूर्ण अहिंसाका पालन कैसे किया जा सकता है ? जैनियोंकी अहिंसाका जो मज़ाक उड़ाते हैं, वे भी यही दुहाई दिया करते हैं कि श्वास लेने में भी जीव मरते हैं, फिर तुम पूर्ण अहिंसक बननेका पागलपन क्यों करते हो ? इसका उचित उत्तर पं. आशाधरजीने दिया है यदि बन्ध और मोक्ष भावोंके ऊपर अवलम्बित न होते तो कहाँ रहकर प्राणी मोक्ष प्राप्त A करता ? भट्टाकलंकदेवने भी तत्त्वार्थराजवार्तिक में इस प्रश्नको उठाया है कि-- 'जलमें जन्तु हैं, स्थलमें जन्तु हैं, आकाशमें जन्तु हैं, इस प्रकार सारा लोक जन्तुओं से भरा हुआ है तब कोई मुनि अहिंसक कैसे हो सकता है ?' इसका उत्तर यों दिया गया है-- सूक्ष्म जीव (जो अदृश्य होते हैं और इतने सूक्ष्म होते हैं कि न तो वे किसी से रुकते हैं, न किसी को रोकते हैं ) तो पीड़ित नहीं किये जा सकते, और स्थूल जीवों (बहुतसे स्थूल जीव अदृश्य भी होते हैं ) में जिनकी रक्षा की जा सकती है, उनकी रक्षा की A विष्वग्जीव चितेलोके क्वचरन् कोप्पमोक्ष्यत । भावैकसाधनौ बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यताम् । जलेजंतुः स्थले जंतुराकाशे जंतुरखेच । जतुमाला कुले लोके कमिक्षुरहिंसकः ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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