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________________ दशधर्म ] [२८३ , पहिले ज़माने में साधुओं को या धर्म-स्थानों को जमान वगैरह दी जाती थी। उसका प्रयोजन यही था कि समाज-सेवक लोग कृषिद्वारा अपना जीवन निर्वाह करें और इस प्रकार स्वाश्रयी बनकर समाज सेवा करें । परन्तु बहुत समय व्यतीत हो जाने पर इत्या दुरुपयोग होने लगा। उनमें कर्मण्यता तो न रही किन्तु जमीदारी-शान आ गई । उनने अपने हाथ से काम करना छोड़ दिया और पूँजीवादी मनोवृत्ति से काम लेना शुरू किया। आन पूंजीवादी मनोवृत्ति को दूर करके इसी प्रकार के आश्रमों या संस्थाओं की जरूरत है जिनके पन्चन में रहकर समाज-सेवक-वर्ग समाज-सेवा करता हुआ जीवन यापन करे, जिसमे इनको भी शान्ति मिले और समाज को सच्चे सेवक तथा मित्र मिलें। जो काम पैसा खर्च करके वेतन नगी विद्वानों से नहीं हो सकता, यह इनमे हो, फिर भी मन के ऊपर इनका कम से कम बोझ पड़े। यह आवश्यक नहीं है कि ये लोग खेती ही करें । ये लोग गृहोद्योग तथा मशीनों के अन्य काम भी करें, छोटे बड़े कारखाने च ठा-साहित्य प्रचार के लिये मुद्र गाय च ठारें । इससे साधु. संस्था और समाज सेवक वर्ग स्वाधी, कण्य, उत्तरदायित्वपूर्ण और संगठित बनेगा । इसके अतिरेक राष्ट्रीय दृष्टि से बहुत लाभ * लाज कल सरीखी जर्मादारी की प्रथा अर्वाचीन है। अगर मैं भूलना नही है तो अकबर बादशाह के समय राजा तोडरमल ने इस प्रथा का सूत्रः पात किया था : इसके पहिल जान के मालिक ही जमीन जोतते हाग। इसकिये समारियों के दाजनी, क.: उपलोग वे ही करते होगा।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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