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________________ दधर्म [२७३ । लिखित का पढ़ना नहीं मालूम होता । परन्तु आजकल उसका यही अर्थ करना चाहिये । आजकल पुराने ढंग की वाचना का रिवाज़ नष्टप्राय हो गया है और लिखित के पढ़ने का रिवाज़ सब जगह फैल गया है । इसलिये वाचना का अर्थ - "पढ़ना" करना उचित है। प्रकृतभाषा में अध्ययन के अर्थ में यह शब्द प्रचलिस दुआ है तथा आजकल की लोकभाषा में तो पढ़ने के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग और भी अधिक होता है। पृच्छना का अर्थ है पूछना । निःपक्ष होकर जिज्ञासा के साथ शंका समाधान करना भी एक प्रकार का स्वाध्याय है। पढ़ी हुई, सुनी हुई या अनुभव की गई बातों पर विचार करना अनुप्रेक्षा हैं। स्वाध्याय का यह बहुत महत्वपूर्ण-बाणोपम भाग है । धांग्णं करने के लिये याद करना आनाय है । व्याख्यान देना, समझाना आदि धर्मोपदेश है। ___... व्युत्सर्ग-आभ्यन्तर तथा गह उपधिका त्याग करना व्युत्सर्ग है । प्रायश्चित्त के मेदों में भी इसका वर्णन हुभा है, परन्तु वहाँ अपराध, की प्रतिक्रिया के रूप में है जबकि यहां यह कारण नहीं है। आभ्यन्तर उपधि में कषाय तथा बाह्य उपधि में हर बाल वस्तु का संग्रह किया जा सकता है । परन्तु इसकी. विशेष उपयोग गिता शरीर त्याग में है । और शरीर त्याग,का मतलब मर जान नहीं है किन्तु उसले विशेष रूप में ममत्व छोड़ देना है । अपरिग्रह व्रत की बीक्षा इससे कुछ विशेष जोर दिया जाता है। . . . . . ध्यान- मन की एकाग्रता का नाम ध्यान है । इस तप पर बहुत जोर दिया गया है, इसका वर्णन भी बहुत किया गया है।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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