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________________ १८] । जैनधर्म-मीमांसा व्यापक है। सबसे पहिले प्राणी जीवित रहना चाहता है, इसलिये अहिंसा की आवश्यकता सबसे पहिले हुई । सबसे पहिले जब कभी धर्म की उत्पत्ति हुई होगी, तब उसका रूप यही रहा होगा कि 'मतमारो !' धीरे धीरे इसकी सूक्ष्म व्याख्या होने लगी। प्राणी मरने से डरता है, इसका कारण यही है कि मरने में उसे कष्ट होता है । इसलिये 'मतमारो' इसका अर्थ यही हुआ कि किसी को कष्ट मत दो। इस प्रकार किसी भी प्रकारका कष्ट देना हिंसा और कष्ट न देना या कष्ट से बचाना अहिंसा कहलाने लगा। परन्तु ऐसे भी बहुत से कार्य होते हैं जिनमें पहिले कष्ट और पीछे आनन्द होता है तथा कभी कभी सुख के लिये कोई प्रयत्न किया जाता है और बहुत सतर्कता से किया जाता है, फिर भी उसका फल अच्छा नहीं होता । ऐसी अवस्था में अगर उसके बाह्य फलपर दृष्टि रखकर किसी को अपराधी माने और निर्णय करें तो कोई अच्छा प्रयत्न ही न करेगा । इन सब कारणों से हिंसा. अहिंसा बाह्य क्रिया न रह गई किन्तु वह हमारे भावों पर अवलम्बित हो गई । इसीलिये जैनशास्त्र कहते हैं कि यह सम्भव है कि कोई किसी को मार डाले फिर भी उसे । हिंसाका पाप न लगे * । कोई जीव मरे या न मरे, परन्तु जो मनुष्य प्राणिरक्षा का ठीक ठीक प्रयत्न नहीं करता, वह हिंसक है। और प्राणिरक्षा का उचित प्रयत्न करने पर केवल प्राणिवध से कोई * वियोजयति चामुभिर्न वधेन संयुज्यते ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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