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________________ दशधर्म ] [ २७१ मुनि, आर्थिका, श्रावक, श्राविका चारों का समावेश होता है। अकलंक देवने तो मनोज्ञ वैयावृत्य में मनोज का अर्थ असंयत सम्यग्दृष्टि भी लिया है, अर्थात् जो मनुष्य संयम का पालन नहीं करता किन्तु सच्चे मार्ग का विश्वासी है वह भी वैयावृत्य का पात्र है। ___ . यह अर्थ भी कुछ संकुचित है परन्तु दर्शन ज्ञान चारित्र का साम्प्रदायिक अर्थ न करने से यह संकुचितता भी नष्ट हो जाती है । जब दर्शनशान चारित्र हरएक सम्प्रदाय में हो सकता है तब साम्प्रदायिक संकुचितता तो नष्ट हो ही गई। जिसमें थोड़ा भी स्वार्थत्याग है, विश्वप्रेम है, वह चारित्रधारी तो है ही। इस प्रकार उदार व्याख्यान से इसकी संकुचितता दूर हो जाती हैं। फिर भी स्पष्टता के लिये इतना और समझ लेना चाहिये कि इसके भीतर प्राणिमात्र की सेवा का संकेत है । हाँ, समाज सेवा आदि गुणों को उत्तेजना देने के लिये .गुण के अनुसार वैयावृत्य करना चाहिये । जो अधिक गुणी है, समाजसेवी है, वह वैयावृत्य का अधिक पात्र है । समान आवश्यकता होने पर अधिक गुणी का अधिक ख़याल रखना चाहिये। . . अधिकारी, श्रीमानों और वेषियों की वैयावल्म अविक लोग किया ही करते है, परन्तु वास्तव में वह तप नहीं है। ऊपर विनय के विषय में सो बावें कहीं गई हैं वे वहाँ भी समझना चाहिये। . मनोसोऽभिरूपः । ९-२४-१२। असंयतसम्यग्दुष्टिवी। . 11-२४-१३ । त• राजवार्तिक
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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