SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४] [जैनधर्म-मीमांसा से अपनी निर्मलता सिद्ध हो और लोगों में निर्वैर-वृत्ति का प्रचार हो उसी ढंग से प्रायश्चित्त लेना चाहिये । प्रायश्चित्त में निम्नलिखित दोषों का बचाव करना चाहिये (१) प्रायश्चित्त करने के पहिले इस आशय से गुरु को प्रसन्न करना जिससे वे प्रायश्चित्त कम दें, (२) बीमारी आदि का बहाना निकालकर यह कहना कि अगर आप कम प्रायश्चित्त दें तो मैं दोष कहूँ । (३), जो दोष दूसरों ने देख लिये हैं-उनका कहना और जो दूसरों ने नहीं देख पाये हैं-उनको छुपा जाना । (४) बड़े बड़े दोष कहना, छोटे-छोटे दोष छुपा जाना (५) बड़े बड़े दोष छुपा जाना और छोटे छोटे दोष प्रगट करना । (६) दोष न बताना किन्तु यह पूछ लेना कि अगर ऐसा दोष हो जाय तो क्या प्रायश्चित्त होगा, इस प्रकार चुपचाप प्रायश्चित्त लेना । (७) सांवत्सरिक पाक्षिक आदि अतिक्रमण के समय यह समझकर दोष प्रगट करना कि इसी सामूहिक प्रतिक्रमण के साथ ही प्रायश्चित का आलोचन प्रतिक्रमण हो जायगा और अलग से कुछ न करना पड़ेगा। (८) प्रायश्चित में अनुचित सन्देह करना । (९) अपने किसी घनिष्ट मित्र या साथी को अपना दोष बताकर प्रायश्चित लेना, भले ही वह उचित से अधिक हो । (१०) अपने समान किसी दूसरे ने अपराध किया हो तो उसी के समान चुपचाप प्रायश्चित . ले लेना। इन दस दोषों में जिस बात को हटाने की सबसे अधिक चेष्टा की गई है, वह है-प्रायश्चित की गुप्तता । प्रायश्चित की गुप्तता से, उसका होना करीब करीब न होने के बराबर हो जाता है।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy