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________________ दशधमें ] [२५९ , तो उसका त्याग करना रसपरित्याग है । रसना इन्द्रिय को वश में रखने के लिये यह तप बहुत अच्छा है। हाँ, यह बात कषाय से न होना चाहिये । परन्तु यह शर्त तो हरएक तप के लिये आवश्यक विविक्तशय्यासन-एकान्त-सेवन करना विविक्तशय्यासन सप है । ब्रह्मचर्य पालने तथा मौज-शौक की आसक्ति कम करने के लिये यह तप किया जाता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसलिये साधारणतः वह एकान्त पसन्द नहीं करता । परन्तु दूसरे लोगों के अनावश्यक सहवास में रहकर, वह जानबूझकर नहीं तो अनजान में, बहुत कष्ट पहुँचाया करता है । इसके अतिरिक्त उसका सुख पराधीन हो जाता है-इससे उसको कष्ट होता है, और दूसरों को भी कष्ट होता है । जैसे-एक आदमी ऐसा है जिसे किसी न किसी से गप्पें मारने की आवश्यकता है । अब ऐसा आदमी अवश्य ही जान में अनजान में या उपेक्षावश दूसरों के कार्य में विघ्न करेगा, अथवा वह दुखी होकर रहेगा । इसलिये अपनी और दूसरों की भलाई के लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य में एकान्त में रहकर सुखी रहने की तथा पवित्र मन रखने की आदत हो। इसके लिये यह तप आवश्यक है। परन्तु यह याद रखना चाहिये कि तप किसी दोष की निर्जरा करने अर्थात् उसे दूर करने के लिये है । एक दोष को दूर करके दूसरे दोषों को स्थान देने से वह तप नष्ट हो जाता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसीलिये उसके दुष्प्रभाव से बचन के लिये विविक्तशम्यासन-तप है । परन्तु, मानलो मनुष्य एक ऐसा
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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