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________________ दशधर्म [२५३ सत्य-धर्म के वर्णन की भी बहुत-सी बातें इस धर्म के स्पष्टीकरण में सहायता पहुंचा सकती हैं। भार्गव, सत्य-धर्म का मुख्य अंग है। . शौच-डोम का त्याग कर देना शौच है । अपरिग्रह-धर्म का यह प्राण है। कभी कभी लोग मितव्ययिता को लोभ समझ जाते हैं, और कभी कभी कंजूसी को मितव्ययिता समझकर आत्म-सन्तोष कर लेते हैं । इसी प्रकार कभी कभी अपम्यय को शौच-धर्म समझ जाते हैं, और कभी कभी उदारता को अपव्यय समझ लेते हैं । शौच क्या है और शौचाभास क्या है, इसका निर्णय करना कठिन है । अन्तस्तल की शुद्ध वृत्तियों से ही इसकी ठीक-ठीक जाँच की जा सकती है। फिर भी एकाध बात ऐसी कही जा सकती हैजिससे शैच और शौचाभास के विवेक में सहायता मिले। .. अपन्यय और मितव्यय की सीमा निर्देश करने के लिये साधारणतः यह समझ लेना चाहिये कि आमदनी की सीमा के बाहर खर्च करना भयत्रा ऋण लेकर खर्च करना-अपव्यय है, और आमदनी के भीतर खर्च करना-मितव्यय है ! हाँ, अगर खर्च करने का ढंग ऐसा है जिससे किसी दुर्गुण की बुद्धि होती है तो आमदनी के भीतर खर्च करना भी अपव्यय है । अपव्यय का नाम शौच नहीं है और मितव्यय का शौच से कोई विरोध नहीं है । किन्तु यहाँ यह बात भी ख़याल में रखना चाहिये कि शौच-धर्म अपरिग्रहबत का प्राण है, इसलिये मितव्यय इस सीमा पर न पहुँच जाय कि उसमें अपरिग्रह-व्रत का भंग होने लगे । अपरिग्रह-व्रत का पहिले वर्णन हो चुका है । उसकी रक्षा करते हुए शौच-धर्म का पालन
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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