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________________ दशधर्म ] [२५१ के लिये है कि किसी सत्य की रक्षा करने या अन्याय का विरोध कर लेने के लिये है ? अपना महत्व बतलाने के लिये उपर्युक्त प्रशंसा अनुचित है। जैसे— कोई मनुष्य इसलिये हमारे देश की निन्दा करता है - जिससे वह हमारे देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ सके या उसके अधिकार छीन सके, तो उसके विरोध में अपने देश की प्रशंसा की जाय तो यह आत्म-प्रशंसा न होगी, क्योंकि इसका लक्ष्य दूसरों को अपमानित करना नहीं, किन्तु न्याय की रक्षा करना है । परन्तु कोई मनुष्य अपना महत्व स्थापित करने के लिये अपने देश की प्रशंसा करता है, और दूसरों को अनार्य म्लेच्छ असभ्य कहता है, दुनिया में अपनी जगद्गुरुता की घोषणा करता फिरता है, तो यह आत्मगौरव नहीं, अहंकार है । जो बात देश को लेकर कही गई है, वही बात प्रान्त, नगर, जाति, कुल, धर्म, सम्प्रदाय आदि को लेकर भी समझना चाहिये । इतना ही नहीं, किन्तु व्यक्तिगत प्रशंसा में भी इसी ढंग से विचार करना चाहिये । यदि अपने व्यक्तित्व की निन्दा' इसलिये की जाती हो जिससे एक निर्दोष समूह का अवर्णवाद (झूठी निन्दा) हो, उसका उचित प्रभाव घट जाय, उसकी निस्वार्थ सेवा निष्फल जाय तो दूसरों को नीचा दिखाने के लिये नहीं, किन्तु इन सब भाइयों की तथा सचाई की रक्षा के लिये आत्मन्प्रशंसा करना भी उचित है । सार इतना ही है कि जिस आत्म-प्रशंसा से तथा आत्मीयप्रशंसा से न्याय की - सत्य की रक्षा होती हो वह उचित है, और जो दूसरों पर आक्रमण करती हो वह अनुचित है । इस कसौटी से 1
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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