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________________ २४८) [जैनधर्म-मीमांसा क्षमा है । यद्यपि बदला लेने की शकि न होने पर भी क्षमा रक्खी जा सकती है, परन्तु शर्त यह है कि उसके दिल में से बदला लेने की भावना बिलकुल निकल जाय; फिर भी दुनिया को उसका मल्य तभी मालूम होता है जब कि उसके पीछे क्षमता होती है। कभी कभी मनुष्य स्वार्थवश पक्षपातवश क्षमा का ढोंग करके अन्याय और अत्याचार में व्यक या अन्यक्त रूप में सहायक होता है। यहाँ भी क्षमा न समझना चाहिये । अगर अत्याचार को रोकने के लिये दंड देने की ही आवश्यकता हो तो क्षमा को धारण करते हुए भी दंडं दिया जा सकता है। उदाहरणार्थ म० रामचन्द्र ने रावण को दंड दिया, परन्तु इसीलिये यह नहीं कहा जा सकता कि २० रामचन्द्र क्षमाशील न थे। अगर रावण अपराध स्वीकार करके सीता वापिस दे देता तो म० रामचन्द्र ज्यों का त्यों उसका राज्य छोड़ देने को तैयार थे। इसलिये म. रामचन्द्र और म० महावीर म० बुद्ध आदि को क्षमाशीलता में कोई अन्तर था, यह बात नहीं कही जा सकती। जो अन्तर दिखाई देता है वह हृदय की वृत्ति का नहीं, किन्तु परिस्थिति का है । इस प्रकार जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं जबकि हृदय में क्षमा होने पर भी लोक कल्याण के लिये या दंडनीय व्यक्ति के कल्याण के लिये दंड की आवश्यकता होती है । दुःख इतना ही है कि साधारण लोगों को यह समझना कठिन हो जाता है कि वास्तव में यहाँ क्षमा है, या क्षमामास है। बाह्य-अहिंसा किस प्रकार हिंसा होती है, और बाबा-हिंसा भी वास्तव में किस प्रकार अहिंसा होती है इस विवेचन में जिस
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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