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________________ २४६] [ जैनधर्म-मीमांसा बोधिदुर्लभ -- सब कुछ मिलना सरल है, परन्तु सत्य की प्राप्ति दुर्लभ है। मनुष्य जन्म, सुशिक्षा, सुसंगति आदि तो दुर्लभ हैं ही, परन्तु सब कुछ मिल जाने पर अहंकार रूपी पिशाच आकर सब छीन ले जाता है । धर्म और सम्प्रदाय के वेष में हम अहंकार के ही पुजारी हो जाते हैं, इसलिये दुनियाँ के विविध सम्प्रदायों में जो सत्य है, उसकी प्राप्ति नहीं हो पाती । किसी भी धर्म के द्वारा सब धर्मों को प्राप्त करना दुर्लभ है, सर्व-धर्म-समभाव दुर्लभ है, धर्म का मर्म प्राप्त करना दुर्लभ है और जब तक वह प्राप्त न किया जाय, तब तक धर्म का जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता, जीवन की सफलता नहीं हो सकती, आदि विचार करना बोधिदुर्लभ भावना है । धर्मस्वाख्यातत्व - धर्म किस तरह कहा जाये, जिसमें वह स्त्राख्यात अर्थात् अच्छी तरह कहा गया कहलावे, इस प्रकार का विचार करना धर्मस्वाख्यातत्व - भावना है । धर्म सबके लिये हितकारी होना चाहिये, उसमें सबको समानाधिकार होना चाहिये, किसी दूसरे धर्म की निन्दा न होना चाहिये, समन्वय बुद्धि होना चाहिये, गुण कहीं भी हो - निःपक्षता से उसको अपनाने की उदारता होना चाहिये, इत्यादि विशेषताएँ ही धर्म की स्वाख्यातता है । बारह भावनाओं के विषय में यहाँ सूत्ररूप में ही कहा गया है । इसका भाष्य तो बहुत लम्बा किया जा सकता है, परन्तु बस भाष्य का मसाला इन अध्यायों में जहाँ-तहाँ बहुत-सा है, इसलिये वह यहाँ नहीं लिखा जाता है ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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