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________________ २११] (जैनधर्म-मीमांसा को-जिसे कि आत्मवादी अनात्मवादी सभी मानते हैं-आस्मा का, मन का, या शरीर के किसी अन्य सूक्ष्म भाग का कहिये इसमें कोई हानि नहीं, परन्तु उसके समझ लेने पर सुख के विषय में मनुष्य की जो दिशाभूल होती है वह दूर हो जाती है। यही अन्यत्व. भावना का लाभ है। अशुचि- शरीर की अशुचिता का विचार करना अशुचिभावना है। इससे दो लाभ हैं । पहिला तो यह कि इससे कुलजाति का मद और छूताछूत का ढोंग दूर हो जाता है । मनुष्य अहंकारवश अपने शरीर को शुद्ध समझता है। कोई अगर व्यभिचार-जात हो तो उसे अशुद्ध समझता है। परन्तु अशुधि भावना बतलाती है कि शरीर सरीखी अशुचि वस्तु में शुचिता और अशुचिता की कल्पना करना ही मूर्खता है। शरीर तो सबके अपवित्र हैं। इसी प्रकार कोई कोई भोले जीव शूद्र के घर में पैदा होनेवाले शरीर को अशुचि और ब्रामण भादि के घर में पैदा होनेवाले शरीर को शुचि समझते हैं। उनको भी अशुचि भावना बतलाती है कि सभी शरीर अनुचि है, इनमें शुचिता अशुचिता की कल्पना करना मुर्खता है। दूसरा लाभ यह है कि शरीर को अशुचि समझने से शरीरिक भोगों की आसक्ति कम हो जाती है । इस प्रकार शारीरिक अहंकार और आसक्ति को कम करने के लिये इस मावना का उपयोग करना चाहिये । परन्तु अशुचि-भावना के नाम पर स्वच्छता के विषय में लापर्वाही न करना चाहिये !
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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