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________________ २४२] [जैनधर्म मीमांसा एकत्व-भावना है । स्वावलम्बन तथा अनासक्ति की वृद्धि के लिये यह भावना बहुत उपयोगी है । परन्तु दुनियाँ, जो सहयोग के तत्व पर ठहरी हुई है, उसका इस भावना से खण्डन नहीं होता, बल्कि वह सहयोग और भी अच्छा बनता है। पति-पत्नी, पिता-पुत्र, गुरुशिष्य, भाई-बहिन तथा मित्र आदि के जो सम्बन्ध है-वे उचित और आवश्यक है, परन्तु प्रत्येक व्यक्ति को यह ध्यान में रखना चाहिये कि इन सम्बन्धों से लाभ उठाने में वह अकेला है । उसकी योग्यता ही उसके काम आयगी । जिस प्रकार हम अपनी भलाई के लिये दूसरों से सहायता चाहते हैं-उसी प्रकार दूसरे भी अपनी भलाई के लिये हमसे सहायता चाहते हैं । दूसरों की भलाई करने की हम में जितनी योग्यता होगी, उसी के ऊपर यह बात निर्भर है कि हम दूसरों से कुछ लाभ उठा सकें । यही हमारा एकत्व है जो कि सहयोग के अनेकत्व के लिये अत्युपयोगी है। एकल का यह अर्थ नहीं है कि व्यक्त या अव्यक्त रूप में दुनिया से तो हम लाभ उठातें रहें, किन्तु उसका बदला चुकाने के लिये कहते फिरें कि "न हम किसी के, न कोई हमारा, झूठा है संसारा" । यह तो एक प्रकार की घोर स्वार्थांधता है एकत्व भावना ३० स्वायाधता के लिये नहीं है, किन्तु स्वावलम्बी तथा योग्य बनने के लिये है। और हाँ, उस समय सन्तोष के लिये है न हमको कोई सहारा न दे । उस समय हमें सोचना चाहिये कि प्रत्येक प्राणी अकेला है, अगर मुझे कोई सहारा नहीं देता तो मुझे अपने में ही सुखी रहने की कोशिश करना चाहिये, आदि । अन्यत्व--में अपने शरीर से भी भिन्न है, इस प्रकार की
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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