SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्चारित्र का रूप [ १५ समूह हो जाता है । उसकी निर्दोषता के लिये हमें स्याद्वाद का उपयोग करना चाहिये। वस्तु के पूर्णस्वरूप को हम कह नहीं सकते, इसलिये उसके किसी एक अंशका निरूपण करते हैं। यहां पर स्याद्वाद का कर्तव्य यही है कि वह नय की सहायता से बतावे कि वस्तु अमुक अपेक्षा से अमुकरूप है । दूसरी अपेक्षाओं से वस्तु कैसी है, इस विषय में वह मौन रखता है अथवा साधारण संकेत करता है। इसी प्रकार चारित्र का प्रतिपादन करते समय हमें यही कहना चाहिये कि अमुक द्रव्य क्षेत्र काल भावमें अमुक विधि कल्याणकारी है । द्रव्यक्षेत्रकालभाव के परिवर्तन होने पर उस विधिमें परिवर्तन भी किया जा सकेगा । इस प्रकार चारित्र के लिये कोई न कोई विधि-नियम-कर्तव्य तो रहेगा ही, परन्तु सदा सर्वत्र अमुक ही रहना चाहिये, ऐसा बन्धन न रहेगा। इस प्रकार विधिविधानों के निर्णय होजाने पर भी पूरा काम न हो जायगा । उनके पालन करने का ढंग भी देखना पड़ेगा । जैनाचार्यों ने इस विषय में बहुत सतर्कता रक्खी है । व्रत के लिये उनकी यह शर्त है कि जो निःशल्य A हो वही व्रती है । जिस प्रकार गाय होनेपर अगर उससे दूध न निकले तो उसका होना व्यर्थ है, उसी प्रकार जो निःशल्य नहीं है, उसका व्रत व्यर्थ है। शल्यवाला व्रत रखने पर भी व्रती नहीं कहला सकता। शल्ये तीन हैं-माया, मिथ्यात्व और निदान । तीन में से एक भी शल्य हो तो कोई व्रती नहीं हो सकता । जहां व्रत में माया A निःशल्यो व्रती
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy