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________________ मुनिसंस्था के नियम इसकी सम्भावना कम ही है ! और जब इनमें जीवन सिद्ध भी होगा तब भी इनका जीवन इतना अल्प मूल्य होगा कि उनकी रक्षा को एक गुण बनाना अनावश्यक ही रहेगा । हाँ, वनस्पतिकाय और प्रस-काय की रक्षा विचारणीय है। परन्तु, आहिंसावत के विवेचन में जितना वर्णन किया गया है उससे अलग इसका कोई स्थान नहीं रहता । तात्पर्य यह है कि छ: काय की रक्षा का बत अहिंसा-बत में आ जाता है । उससे अधिक को मल-गुण में लाने की कोई जरूरत नहीं है। रात्रिभोजनत्याग----इस नये पाठ में रात्रि भोजन त्याग को मिलाकर अहिंसादि व्रत बनाये गये हैं। दिगम्र सम्प्रदाय के पाठ में और श्वताम्बर सम्प्रदाय के प्रथम पाठ में रात्रि भोजनस्याग का उल्लेख नहीं है। इससे यह तो माल्म होता है कि प्रारम्भ में मुनियों के लिये रात्रि भोजन का त्याग अनिवार्य नहीं था। परन्तु रात्रि में यन्नाचार से चलना मुश्किल था, इसलिये रात्रि में भिक्षा भी नहीं ली जा सकती थी, इसलिये रात्रि भोजन ठीक नहीं समझा गया। रात्रि भोजन में समिति आर एपणासमिति का ठीक ठीक पालन न हो सकन से रात्रिभोजन का यथाशक्य निषेध किया गया। फिर भी प्रारम्भ में इस निषेध ने मूलगुण का रूप धारण नहीं किया। थोड़े समय बाद मुनियों के लिये यह स्वतन्त्र व्रत मान लिया गया। दशवकालिक में यह स्वतन्त्र व्रत • अहावरे छठे मन्ते वए राइमायणाओ बेरमणं । "इयाई पञ्च महब्बयाई गइभोयणवेरमण छटाई अन्तहियट्टयाए उब संपब्जिताणं विहामि । ४६ ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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