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________________ २२४] [जैनधर्म-मीमांसा की इस महान हिंसा से बचने के लिये प्रारम्भ में थोड़ी-सी हिंसा कर ली जाय । यह विवेक पूर्ण अहिंसा ही कहलायगी । इस दृष्टि से उपवास के दिन भी दैनौन करना उचित है । - भू-शयन -जमीन पर सोना भी एक मूल गुण है । साधु की कष्ट-सहिष्णुता तथा निष्परिग्रहता को बढ़ाने के लिये तथा आरामतलबी को दूर करने के लिये यह निय। बनाया गया था। अपने समय के लिये यह बहुत उपयोग या, और अमुक अंश में आज भी उपयोगी है । उस समय साधु-संस्था को परित्राजक अर्थात् भ्रमणशील बनाना ज़रूरी था, इसलिये अगर भू-शपन का नियम न होता तो मुनि लोगों के सिर पर सामान का ? ना बोझ हो जाता कि वे स्वतंत्रता में भ्रमण नहीं कर सकते थे, इसलिये भक्तों को उनके साथ नौकर-चाकर रखना पड़ते, रास्ते में अगर कोई बिस्तर चुरा लेता तो बेचारे मुनियों की गति ही रुक जाती, इसलिये यह नियम बनाकर बहुत अच्छा किया गय! । परन्तु आज गमनागमन के साधन बदल गये हैं तथा मुटभ हो गये हैं, उप्त की आवश्यकता भी बढ़ गई है, साथ ही वस्त्रादि का उत्पादन भी बढ़ गया है । सेवा करने के तरीके भी बदल गये हैं । इसलिये यह व्रत सिर्फ अभ्यास के लिये ही रखना चाहिय. मल-गुण में डालने लायक नहीं है । हाँ, साधु में इतनी मानसिक सहन शक्ति अवश्य होना चाहिये कि वह आवश्यकता पड़ने पर सन्तोष के साथ भू-शयन कर सके। खड़े आहार लेना--यह भी एक मूल-गुण समझा जाता है । जब साधु नग्न रहता था, 'पात्र नहीं रखता था, और श्रावक
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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