SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्चारित्र का रूप] संयम या चरित्रा में जितनी अपूर्णता है उतने ही अधिक नियमों के बंधन रखना पड़ते हैं। हाँ, यह बात अवश्य है कि अपवाद अनुकरणीय नहीं होते । अपवाद प्रत्येक प्राणी की योग्यता और उसकी परिस्थिति के अनुसार होते हैं । मतलब यह है कि कोई कार्य चाहे वह नियम के अन्दर हो या नियम के बाहर हो, अगर उससे कल्याण की वृद्धि होती है तो वह चारित्र है अन्यथा अचारित्र है । किसी कार्य को नियमों की कसौटी पर कसकर उस की जाँच नहीं करना चाहिये, किन्तु कल्याणकारकता की कसौटी पर कसकर उसकी जाँच करना चाहिये । धर्माधर्म की परीक्षा का यही सर्वोत्तम उपाय है। इसका यह मतलब नहीं है कि नियम बेजरूरी हैं । साधक अवस्था में नियमों की जरूरत अवश्य है। परन्तु जब मनुष्य संयमनिष्ठ हो जाता है तब वह नियमों के पालन करने की चेष्टा नहीं करता, किन्तु कल्याणकारकता को कसौटी बनाकर उसी के अनुसार कार्य करता है। उस प्रकार कार्य करने से नियमों का पालन आप से आप हो जाता है। यदि कभी नहीं होता तो भी इससे चारित्र में कुछ त्रुटि नहीं होती बल्कि कभी कभी वह नियम ही संशोधन के योग्य हो जाता है | नियम आवश्यक होने पर भी जो मैं यहां उनपर जोर नहीं दे रहा हूं, इसका कारण यह है कि नियमों को सार्वकालिक या सार्वत्रिक रूप नहीं दिया जा सकता। उनको परिस्थिति के अनुसार बदलने की आवश्यकता होती है। दूसरी बात यह है कि असंयमी भी संयम के नियमों का अच्छी तरह पालन करते हैं,
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy