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________________ २१४] [जैनधर्म-मीमांसा जाय, परन्तु इससे किसी का कुछ लाभ तो है ही नहीं, तब निरर्थक कष्ट की क्या आवश्यकता है ? हाँ, कष्ट-सहिष्णुता बढ़ाने के लिये काय-क्लेश आदि तप किया जा सकता हैं; परन्तु कायक्लेश तो इच्छानुसार होता है, वह कोई अनिवार्य शर्त नहीं है केशलौंच को मूल-गुण बनाना इस समय बिलकुल निरुपयोगी है । प्रश्न – साधु तो निष्परिग्रह होता है; उसके पास उस्तरा रह नहीं हो सकते और न वे दीनता दिखला सकते हैं जिस से क्षौर कराने के लिये किसी से प्रार्थना करें । इसलिये लौंच के सिवाय उनके पास दूसरा उपाय क्या है ! उत्तर - निष्परिग्रहता का यह अर्थ नहीं है कि वह स्वच्छता के उपयोगी उपकरण भी न रक्खे : खै', यहाँ तो साधुता और अपरिग्रहता की उदार व्याख्या की गई है, इसलिये यह प्रश्न खड़ा ही नहीं होता, परन्तु दूसरी बात यह है कि प्राचीन परम्परा के अनुसार भी क्षौर कर्म में कोई बाबा नहीं आती; क्योंकि जब साधु को पढ़ने के लिये पुस्तकें मिलती हैं, पंहिनने के लिये कपड़े मिलते हैं, व खाने के लिये भोजन और बीमारी में औषध मिलती है, तब क्षौर के लिये एकाच उपकरण न मिले या कोई क्षौर न करा दे, यह कैसे हो सकता है ? जिस प्रकार श्रावक आहार-दान करते हैं, उसी प्रकार क्षौर-दान भी कर सकते हैं, इसलिये अपरिग्रह की ओट में क्षौर का विरोध नहीं किया जा सकता । हाँ, कष्टसहिष्णुता की परीक्षा के नाम पर ही इसका कुछ समर्थन किया जा सकता है, परन्तु आजकल तो वह भी ठीक नहीं है। किसी की इच्छा हो और इस तरह के काय-क्लेश का अभ्यास करना हो तो वह
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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