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________________ २१० ] [जैनधर्म-मीमांसा में आ जाता है, इसलिये इसको अलग कहने की कोई ज़रूरत नहीं है । इसके नाम पर जो छोटी-छोटी बातों की प्रतिज्ञाएं ली जाती हैं ने भले ही ली जावे; परन्तु वे तो सब अभ्यास के लिये हैं। तथा महत्त्वपूर्ण भी नहीं हैं । इसलिये प्रत्याख्यान को मूल-गुण में अलग स्थान नहीं दिया जा सकता । इसके बदले में कहीं कहीं स्वाध्याय रक्खा गया है । स्वाध्याय एक प्रकार से आवश्यक है, फिर भी इसे मूल-गुण में नहीं रख सकते; क्योंकि साधु के सामने अगर सेवा वगेरह का महत्वपूर्ण कार्य हो तो स्वाध्यायन भी करे तो कोई हानि नहीं । प्रश्न - स्वाध्याय पाँच तरह का है। पढ़ना, प्रश्न करना, विचार करना, ज़ोर ज़ोर से याद करना, उपदेश देना । इस में से कोई न कोई स्वाध्याय प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये । जो लोग विद्वान हैं वे उपदेश देकर स्वाध्याय करें, और जो साधारण ज्ञानी "है वे पाँचों में से कोई एक जरूर करें। साधु संस्था में ज्ञान आवश्यक मालूम होता है और ज्ञानके लिये स्वाध्याय आवश्यक है । ( t उत्तर - सेवा के ऐसे अवसर बहुत हैं जब किसी को व्याख्यान देने की फुर्सत न हो और हो तो उसकी जरूरत न हो साधु के लिये पुस्तक का पढ़ना पढ़ाना इतना आवश्यक नहीं है जितनी कि लोक-सेवा । ,! प्रश्न - तब आप लोक-सेवा को ही मुल-गुण क्यों नहीं कहते ? बाकी सब मूल-गुण उठा दीजिये । खासकर प्रतिक्रमण की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती । उत्तर - अन्य मूल-गुण लोक-सेवा के लिये अत्यावश्क हैं।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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