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________________ मुनिसंस्था के नियम] [१८७ भी अपवाद किया जा सकता है; परन्तु साधारणतः राजमार्ग उत्सर्ग मार्ग-वही है । कहने का तात्पर्य यह है कि सन्तान की समस्या अपरिग्रह-व्रत के पालन करने में बाधक है, इसलिये संतानोत्पत्ति के मार्ग से बचना चाहिये, और प्रारम्भ की तीन श्रेणियों में से किसी भी एक श्रेणी का अपरिग्रही बनकर साधु बनना चाहिये। साधु-संस्था में इस प्रकार के पाँच मूल गुण आवश्यक है। पाँच ममिति-यपि पाँच महासतों में पाँच समितियाँ शामिल हो जाती हैं फिर भी जिस समय लोगों का जीवन प्रवृतिबहुल होगया था और उसमें आवश्यक निवृत्ति को भी उचित स्थान नहीं रह गया था, उस समय प्रवृत्तियों को सीमित करने के लिये पाँच समितियों का अलग स्थान बनाया गया है । परन्तु मैं कह चुका हूँ कि प्रवृत्ति भी अगर कल्याणकर हो तो धर्म है और निवृत्ति भी अगर अकल्याणकर हो तो पाप है, इसलिये निवत्ति को धर्म की कसौटी बनाना ठीक नहीं । इसलिये पाँच समितियों को अलग स्थान नहीं दिया जा सकता; वे पाँच महाव्रतों में शामिल हैं। पाँच समितियों में पहिली र्या-समिति है । इसका अर्थ है, चलने फिरने में यत्नाचार करना दिन में ही चलना चाहिये, धीरे धीरे चलना चाहिये, आगे आगे चार हाथ जमीन देखते हुए . चलना चाहिये, इत्यादि रूप में इसका पालन किया जाता है । हाथी घोड़ा गाड़ी आदि का उपयोग भी नहीं किया जा सकता। निःसन्देह ये नियम आदर्श हैं और एक समय के लिये आवश्यक
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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