SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४] [जैनधर्म-मीमांसा ५ अहिंसादि-व्रत, ५ इन्द्रिय-विजय, . क्रोधादि चार विवेक, ३ सत्य (भाव-सत्य, करण-सत्य, योग-सत्य), १ क्षमा, १ विरागता, ३ मन-वचन-काय की समाहरणता अर्थात् उनकी बुराइयों को रोकना, १ ज्ञानयुक्तता, १ दर्शनयुक्तता, १ चरित्रयुक्तता, १ वेदना सहन करना अर्थात् ठंड गर्मी का कष्ट सहन करना, १ मरण का कष्ट सहन करना अथवा ऐसा उपसर्ग सहन करना जिससे मृत्यु होने की सम्भावना हो। दूसरे + पाठ के अनुसार २७ मूल-गुण निम्न लिखित हैं६ व्रत (पाँच व्रतों में एक रात्रि-भोजन त्याग जोड़ देने से ), ६ षट्काय के जीवों की रक्षा, ५ पंचेन्द्रिय दमन, १ लोभ दमन, १ क्षमा, १ भाव विशुद्धि, १ यनाचार पूर्वक सफाई करना, १ संयमयुक्तता, ३ मन-वचन-काय की बुराइयों का रोकना, १ शीतोष्ण आदि के कष्ट सहना, १ मरणोपसर्ग सहना । ___ इस मूल-गुणों में नामों का भेद होने पर भी वस्तुस्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता। मूल गुणों में बहुत से मुल-गुण ऐसे हैं कि जिनका नाम नहीं आया है अथवा उत्तर-गुणों में कोह विवेगे, माणविवेगे. मायाविवेगे लोहाविवेगे मावसञ्चे, करणसच्चे, जोगसच्चे खमा, विरागया, मणसमाह णया, वय समाहरणया, काय समाहरणया, णाणसं. पण्णया, चरित्त संपण्णया, बयण अहियासणया, मारणंतिय अहियासणया। छन्वय छकाय रक्खा पंचिदिय लोहनिम्गही खंती। मावविशुद्धी पडिलेहणा य करणे विसद्धी य ।। संजम जोए जुची अकुसल मणवयणकाय संरोही। सीमाश्पीडसहणं मरणं उपसग्गसहणं च।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy