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________________ १७८] [जैनधर्म-मीमांसा बहुलता हो । इनमें से जो दल उस सुधारक शिरोमणि के दृष्टिगोचर होता है, उसी की तरफ़ उसकी कार्य-प्रणाली दुल जाती है । म. बुद्ध लोगों के स्वाभाविक दुःख देखकर कार्य क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और रामचन्द्रजी अत्याचारियों के अत्याचार सुनकर कार्यक्षेत्र में प्रवेश करते हैं । इस प्रकार दोनों की कार्य-प्रणाली जुदी जुदी हो जाती है । और उसी के अनुसार उनकी रुचि बन जाती है; परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि वे कार्य क्षेत्र में संकुचित होते हैं । श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र चलाने के साथ मीता का संदेश भी देते हैं और म० महावीर, मृगावती और चण्डप्रद्योत की युद्धस्थली में आकर युद्ध का अंत कराके मृगावती की रक्षा करते हैं । इस प्रकार अपनी अपनी रुचि के अनुसार कार्य-प्रणाली अंगीकार करके भी सभी तरह के तीर्थकर समाज का सर्वतोमुख सुधार करते हैं । जिस प्रकार वैद्य, डाक्टर और हकीम तीनों ही रोग को दूर करते हैं यद्यपि उनकी चिकित्सा-प्रणाली जुदी-जुदी है, उसी प्रकार गृह-त्यागी और • गृहस्थ तर्थिकरों की बात समझना चाहिये । ३-यद्यपि गृहस्थ अवस्था में रहकर मनुष्य अपना पूर्ण विकास कर सकता है और कभी-कभी तो ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं कि उसे गृहस्थ अवस्था में रहना ही श्रेयस्कर होता है तथापि साधारणतः पूर्ण लोक-सेवक या तीर्थकर को एक प्रकार का सन्यास लेना पड़ता है । इस अवस्था में वह अर्धगृहस्थ या मुनि के समान रहता है। इससे उसे दो लाभ होते हैं (क) भार हलका होने से वह लोक-सेवा का काम सरलता से कर सकता है । व्यक्तिगत चिन्ताओं में उसे अपनी शक्ति
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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