SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनर्धम-मीमांसा प्रवृत्तिरूप होना चाहिये । दूसरी बात यह कि चारित्र की परीक्षा निवृत्ति प्रवृत्ति की कसौटी पर कसकर न करना चाहिये । जो प्रवृत्ति सुखको प्राप्त करानेवाली हो और दुःख को दूर करनेवाली हो वह कितनी भी अधिक हो परन्तु वह चारित्र है; और जो निवृत्ति दुग्य दूर न करे या सुख न दे वह अचारित्र है । तीर्थकर के समान प्रवृत्तिशील कौन होगा ? परन्तु उनके समान समुन्नत चारित्र किसका है ? इसी प्रकार जो प्राणी जड़समान है (पृथ्वीकायिक आदि) या जो आलसी दीर्घसूत्री निद्रालु और कायर हैं, वे निवृत्तिपरायण हो करके भी चारित्रहीन हैं । इसलिये चारित्र, निवृत्ति प्रवृत्ति पर निर्भर नहीं है किन्तु सुखप्रापकता पर निर्भर है । यदि पूर्ण सुख की प्राप्ति के लिये पूर्ण निवृत्ति आवश्यक हो तो पूर्ण निवृत्ति भी चारित्र के अंतर्गत हो जायगी; परन्तु वह इसलिये नहीं कि वह निवृत्ति है किन्तु इसलिये कि वह सुखप्रापक है। ___ यह बात दूसरी है कि चारित्र के वर्णन के लिये कहीं निवृत्ति पर जोर दिया जाय, कहीं प्रवृत्ति पर जोर दिया जाय, परन्तु किसी एक पक्षको पकड़के रह जाना एकान्तवाद ही है । और एकान्तवाद तो जैनधर्म के विरुद्ध है; इसलिये चाहे निवत्तिरूप हो या प्रवृत्तिरूप हो, जो सुखी होने का सच्चा प्रयत्न, क्रिया चर्या आचरण है, वह सम्यक्चारित्र है । जैनशास्त्रों में अगर कहीं चारित्र के नाम पर निवृत्ति या प्रवृत्ति पर भार रखा गया हो तो समझना चाहिये कि वह शास्त्र रचना के समय के देशकालका प्रभाव है, या उस समय की आवश्यकता का फल है। वह सार्वकालिक और सार्वत्रिक स्वरूप नहीं है।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy