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________________ १७० ] [जैनधर्म-मीमांसा चारित्र का सर्वोत्तम स्थान है । जिसको कषायें - वासना पन्द्रह दिन तक रहती है, वह सकल-चारित्री है । साधारणतः मुनियों के कम से कम यह चारित्र होना चाहिये। जिसकी कषाय-वासना चार मास तक ठहरती है, वह देश - चारित्री है। यह चारित्र साधारणतः गृहस्थों के माना जाता है और जिसकी कषाय-वासना एक वर्ष तक ठहरती है, इससे ज्यादा नहीं ठहरती वह स्वरूपाचरण चारित्री कहलाता है । यह चारों गतियों में हो सकता है । इस वारित्रवाले को सम्यग्दृष्टि भी कहते हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शन के साथ यह, चारित्र अवश्य होता है । इससे भी अधिक जिसकी कषाय- बासना ठहरती है, वह मिया-दृष्टि है । उसकी कषायन्वासना अनन्तानुबन्धी कहलाती है । उसके कोई चारित्र नहीं माना जाता है इन चार प्रकार के चारित्रों को नाश करनेवाली जो कषायें हैं, उनके चार नाम रक्खे गये हैं: - अनन्तानुबन्धी, अप्रत्यारूपानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संचलन । अनन्तानुबन्धी की वासना श्वेताम्बर मतानुसार जीवन भर रहती है और दिगम्बर + मतानुसार अनन्त या असंख्य या संख्य भवों तक । अप्रत्याख्यानावरण की वासना एक ९ जाजीव बरिस चडमा पक्खगा नस्य तिरिय नर अमरा । सम्माशुसव्व विरह अहवाय चरितत्रायकरा ॥ - कम्म विवाग १ - १८ | + अन्तत पक्वं छम्मासं संखसवर्णतमवं ' संजलणमादियाणं वासणकाला दु नियमेण ॥ - गोम्मटसार कर्मकाण्ड ४६ |
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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