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________________ १६६] जैनधर्म-मीमांसा दास और पशुओं के पास धन नहीं होता । वे अनासक्ति तथा भोगोपभोगों की परिमितता से इस व्रत का पालन कर सकते हैं। कदाचित उनके हाथ में सम्पत्ति आवे तो वे अपनी अपरिग्रहता का परिचय दे सकते हैं। परिग्रह के चार भेद-हिंसा, असल्य आदि के जैसे चार चार भेद पहिले किये गये हैं उसी प्रकार परिग्रह के भी चार भेद समझना चाहिये । यहाँ तो उनका नाममात्र वर्णन किया जाता है, बाकी विवेचन तो ऊपर किया ही जा चुका है। संकल्पी-भागों की लालसा से, अहंकार या मोह से अपने हिस्से से अधिक सम्पत्ति रखना संङ्कल्पी-परिग्रह है । कोई महात्मा या कर्मयोगी कारणवश अधिक सामग्री भी रक्खेगा परन्तु मौज उड़ाने के लिये नहीं, अपनी सन्तान के मोह से नहीं, बड़ा आदमी बहलाकर दूसरों के ऊपर धाक जमाने के लिये नहीं; किन्तु सिर्फ समाज-सेवा के लिये । इसलिये इसे सङ्कल्पी परिग्रह न कह सकेंगे। . आरम्भी-सेवा आदि कार्य के लिये या जीवन के निर्वाह के लिये जिन चीजों की आवश्यकता है उनका रखना आरम्भी परिग्रह है । जैसे पढ़ने के लिये पुस्तक (किसी के यहाँ पुस्तकों का व्यापार होता हो तो वह आरम्भी-परिग्रह न कहलायगा । यही बात सेवा के अन्य उपकरणों के विषय में भी समझना चाहिये) कुर्सी, पलंग आदि । परन्तु इनका अनावश्यक संग्रह किया जाय, या नाम मात्र की आवश्यकता से संग्रह किया जाय या सम्पत्ति मानकर इनका संग्रह किया जाय तो यह संकल्पी-परिग्रह हो जायगा ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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