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________________ १६२] जैनधर्म-मीमांसा करना इतना आवश्यक है ? क्या समाज बिना किसी कष्ट के इतनी सुविधा देने को तैयार है ? सेवक व्याक्ति इसके लिये सीधी या टेढ़ी रीति से किसी को विवश तो नहीं कर रहा है ! अहंकार से तो वह ऐसा नहीं कर रहा है ! इसी प्रकार के प्रश्न अन्य दरुपयोगों के विषय में भी करना चाहिये । इन प्रश्नों के उत्तर से वास्तविकता का पता लग जायगा । नीति तो सिर्फ मार्ग बतला सकती है । उसका ठीक पालन करना हमारी शुद्ध बुद्धि पर निर्भर है। Y~ आत्म-रक्षा के लिये लकड़ी आदि के रखने की आवश्यकता हो तो वह भी पारग्रह नहीं है । मार्ग आदि चलने में लकड़ी आदि से बहुत सहायता मिलती है, इसलिये अगर कोई लकडी रखेगा तो वह परिग्रह न कहलायगी । हाँ, अगर वह उस से हिंसा करेगा तो अवश्य परिग्रह हो जायगी, क्योंकि अब उसका लक्ष्य आत्म-रक्षा न रहा। प्रश्न-पशुओं वगैरह से आत्म-रक्षा करने के लिये लकड़ी रखना परिग्रह है या नहीं ? अथवा आर वह आत्म-रक्षा के लिये लकड़ी का प्रयोग को, पशु को कदाचित मार भी दे तो फिर उसे परिग्रह कहेंगे या नहीं ? उत्तर-यह प्रश्न हिंसा-अहिंसा से सम्बन्ध रखता है। प्रत्येक बाह्य हिंसा को हम हिंसा नहीं कह सकते, इस बात का विचार करके ही हम उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं । मनुष्य के समान पशुओं के भी आत्मा है इसलिये उन्हें नहीं सताना चाहिये, परन्तु वे अपनी भाषा नहीं समझते इसलिये लकड़ी
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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