SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६०] [जैन-धर्म-मीमांसा अनुकुल हो वह बताया जा सकता है कि एक मुनि आवश्यकतानुसार सम्पत्ति रक्खेगा, परन्तु उस सम्पत्ति का उत्तराधिकारित्व वह समाज को देगा, वह सन्तान को या सन्तान के स्थानापन्न किसी व्यक्ति को नहीं । इसके अतिरिक्त आवश्यकतानुसार ही सम्पत्ति रक्खेगा, महत्ता बतलाने के लिये नहीं । इन दो बातों की रक्षा करता हुआ वह खेती करे या और कुछ, उसके मुनित्व में बाधा नहीं आ सकती अर्थात् वह परिग्रह का दोषी नहीं कहला सकता। ३-'देश की सम्पति में अपना जितना हिस्सा हो सकता है उससे अधिक ग्रहण करना परिग्रह है, इसमें इस बात का खयाल रखना चाहिये कि अगर समाज सेवा के लिये उपकरण रखना हो तो वे परिग्रह नहीं हैं । जैसे, एक विद्वान ज्ञान बढ़ाकर समाज का कल्याण करन! चाहता है, इसके लिये उसे पुस्तकालय की आवश्यकता है तो वह परिग्रह नहीं है । हाँ, अगर वह काम कुछ नहीं करता या बहुत थोड़ा करता है, किन्तु सिर्फ महत्ता बतलाने के लिये पुस्तकों का ढेर एकत्रित करके रखता है, कोई भसुविधा या हानि न होने पर भी उनका उपयोग दूसरों को नहीं करने देता तो वह परिग्रही है । उन पुस्तकों को अपनी सम्पत्ति समझता है तो परिग्रही है। जो बात यहाँ बानोपकरण के विषय में कही गई है वही बात और भी अनेक तरह की सेवा के उपकरणों के लिये लागू है। इतना ही नहीं किन्तु सेवा करने के लिये शरीर के लिये कुछ मुविधा देने की आवश्यकता हो तो वह भी परिग्रह नहीं है। उदाहरणार्य अधिक परिश्रम के कारण जौषष
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy