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________________ १५६] [जैनधर्म-मीमांसा . समाधान --किसी के यहाँ भोजन करना या अनेक घरों से भिक्षा माँगकर एक जगह भोजन करना अपरिग्रह की दृष्टि से एक ही बात है। शंका--अपने स्थान पर भिक्षान लानेवाला कुछ समय के लिये धान्य का परिग्रह करता है; इसलिये वह परिग्रही ही है। अगर उसे परिग्रही न कहा जाय तो कोई जीवन भर के लिये धान्य का संग्रह करे तो उसे भी परिग्रही न कह सकेंगे--इसलिये कुछ न कुछ मर्यादा तो बाँधना ही पड़ेगी । कोई मर्यादा बाँधी जाय तो उसका कोई कारण तो बतलाना पड़ेगा, और ऐसा कोई कारण है नहीं जिससे यह कहा जाय कि अमुक समय तक संग्रह करना चाहिये और बाद में नहीं। समाधान-अपने पास रखने से ही कोई परिग्रही नहीं होता अपने पास रखने पर भी अगर स्वामित्व की वासना न हो तो वह परिग्रही नहीं कहलाता । दूसरी बात यह कि जो चीज़ हम ग्रहण करें वह हमारे वास्तविक अधिकार के बाहर की न होना चाहिये । पहिले परिग्रह का विवेचन करते समय यह बताया गया है कि परिग्रह क्यों पाप है ! जिस संग्रह में परिग्रह का वह लक्षण नहीं जाता वह परिग्रह नहीं कहला सकता । समय की मर्यादा भी यहाँ भावश्यक नहीं है । वह तो देशकाल के अनुसार बाँधी जा सकती है। मिक्षा या परिश्रम के द्वारा प्रतिदिन भोजन मिलने की सुविधा हो तो दूसरे दिन के लिये संग्रह न करे, अन्यथा कई दिन के लिये भी संग्रह किया जा सकता है। प्रवास आदि में भी कई दिन के लिये संग्रह किया जा सकता है। हाँ, इस बात का विचार
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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